अस्तित्व
अस्तित्व
बच्चों का था शोर गुल
रेल पेल थी कामों की
वयस्तता का आलम था
फुर्सत कहाँ थी ज़माने की !!
मरने का भी वक़्त नही था
ज़िन्दगी थी ताने बाने की !
जीती रही मैं अपनों के लिए
पर अपने लिए एक पल भी न था
सब कुछ ही तो अपना था
कुछ भी नहीं बेगाना था !!
सपना बुन रही थी जिसका
वो आने वाले कल का था !
बात बात पर बहस का होना
कभी हँसना और कभी रोना
सिलसिला ये रूठने मनाने का
फिर पल में सब भूल जाने का !!
अपने सपने साकार
दिखते
उनके हँसते चेहरों में
मेरा अस्तित्व कहाँ रह गया
घुल गया मेरे बच्चों में !!
परवाज़ के लिए पंख दिए उनको
और दिया खुला आसमान
उड़ान भरी जब बच्चों ने
निकल गयी मेरी रूह और जान !!
क्या मालूम था ऐसा होगा
मेरा कल फिर कैसे होगा
तन्हाई ने दस्तक दी तो
नींद से जैसे आँख खुली !!
अब करनी है मुझे अपने मन की
देना है मुझे अपना साथ
फिर से जीना है ये जीवन
कागज़,कलम ,दावत के साथ !!!!