अस्तित्व
अस्तित्व
एक अरसे से यही तो रीति रही है। तुझसे ही धरा सदा मेरी प्रीति रही है। तुझे जोतता हूँ तुझी पर उगाता हूँ। तेरी मिट्टी से भाग्य अपना बनाता हूँ। कभी गेहूँ कभी सरसों कभी बोता हूँ धान। तुझ पर मैं तन-मन-धन अपना करूँ कुर्बान।
अन्न के भंडार तू है भर-भर के देती। दिन-रात न जाने कितने प्रहार सहती। पेट तो तू सबका भर ही रही थी। पर इच्छाएं पूरी न हो पा रही थी। कच्चे झोपड़ों में बहुत हैरानी थी। ईंटों की मुझे जो मंजिल बनानी थी। आराम का ऐसा सिर पे चढ़ा जुनूँ। तुझे खोदने का तभी से काम हुआ शुरू। कच्चे, पत्थर के बर्तन सब बेकार लगने लगे। ताँबा और श्याम अयस जबसे हाथ लगे। हीरे, सोने-चाँदी का पता जैसे ही लगा।
शौक अमीरी का मुझे तब ऐसा लगा। पठारों के गर्भ से निकालने लगा हूँ खनिज। अब बस देख रहा हूँ मैं सिर्फ स्वार्थ निज। तेरा दर्द नहीं मैं महसूस कर पाता हूँ। तेरे सीने को रोज मैं बंजर बनाता हूँ। कहीं सड़क, कहीं घर, कहीं खेत बनाये हैं।
हर रोज मैंने तेरे फेफड़े जलाए हैं। घुलती जा रही है कालिख(कार्बन) हवा में। जीने को न जाने कितने मजबूर हैं दवा में। ये वातावरण भी नित गर्म हो रहा है। मुझ जैसा हर शख्स चैन खो रहा है। हिम धीरे-धीरे पिघल रही है।
मृदा भी निरंतर मर रही है। जीवों पे संकट मंडराने लगा है। मानसून असमय आने लगा है। जो कर रहे तेरे साथ उसी का ये फल लगता है। मुझे बड़ा डरावना आने वाला कल लगता है। नित एक भीड़ तेरी ओर बढ़ रही है। तू अपने अस्तित्व से लड़ रही है। कुछ भी हो तुझे बचाना होगा। इक बेटे का फर्ज निभाना होगा।