अपेक्षा
अपेक्षा
अपेक्षा की हर कड़ी ने ढाया कहर
हर अपेक्षा बनी जी का जंजाल
एक नई अपेक्षा का सामना हर सहर
खाली हाथ आए सहर क्या मजाल
लगा वक्त ख़ुद को समझाने में
क्यों फटकती नहीं खुशी पास मेरे
दर दर भटकी गुत्थी सुलझाने में
अपेक्षा जो थी हर पल साथ मेरे
अपेक्षा...बच्चों से, बड़ों से, बूढ़ों से
दुनिया से,ज़िंदगी से,तकदीर से
क्या है गिनवाना -अपनों से औरों से
होती न कम किसी तदबीर से
हर रिश्ते में घोला ज़हर अपेक्षा ने
आशा को निराशा में बदला
अवसाद का किया आह्वान अपेक्षा ने
समझ न पाया मन यह पगला
जब से अपेक्षा को समझा जाना
सीखा उसे तिलांजलि देना
धीरे धीरे,रख मन पर पत्थर ठाना
अपेक्षा की नहीं अब चलने देना
नहीं है आसान - नहीं लगे गलत कभी
जोंक बन चिपक जाती जीवन भर
हर रिश्ते ज़ख़्म के पीछे अपेक्षा ही
राज़ खुशी का-अपेक्षा की उपेक्षा कर !