मन हो न निराश
मन हो न निराश
वीरानियों में यूँ
हो न उदास
भावनाओं में अपनी
भर दे पलाश
व्याकुल है क्युँ
जिन्दगी के ताप से
रौशन कर खुद को
नये आफताब से
तुझमें है अनंत
तरंगों का वास
मन क्युँ होता
है यूँ निराश।
माँथे से चिंता की
सलवटें हटा
देख उस चाँद को
ठहर के जरा
जो बादलों में
अकेला है
चाँदनी को अपनी
धरती पर बिखेरा है
दीपक बन तू भी
रौशनी फैला
बन सितारा उम्मीदों के
आसमान में जगमगा
तुझमें है बाकि
जीने की आस
मन क्युँ होता
है यूँ हताश।
बन समुन्दर की लहरें
चट्टानों से टकरा
कर कोशिश बार-बार
एक नया रास्ता बना
जिजीविषा को अपनी
तू प्रबल कर
न हार के यूँ
आँसू बहा
तप कर आग में भी
सोने सा चमक
आशाओं का नया
आशियाना बना
तुझमें है बाकि
अविरल प्रकाश
मन क्यूं होता
है यूँ बदहवास।
