सन्नाटा
सन्नाटा
अब शोर है तो केवल सागर की लहरों का,
नदियों की धाराओं का, उड़ते हुए परिंदों का।
इंसानों को है कैद किया प्रकृति के मौन इशारों ने,
अब छोड़ दो ये मनमानी, भय करो निकृष्ट परिणामो का।
गलियों मे पसरा सन्नाटा ये चीख चीख कर कहता है,
अभिशाप है ये उस प्रकृति का जिसने कहर सहा हैवानो का।
नवजीवन की जो लालसा हम इंसानों मे होती है,
फिर क्यों ना हो उस प्रकृति में, जिसने बीज दिया उपहारों का।
आओ हम सब यह प्रण करें, जब नवजीवन मिल जाएगा,
अपनाएंगे सादा जीवन नैतिकता का, उपकारों का।
