टूटती अभिलाषा
टूटती अभिलाषा
वो हरे जंगल
जहाँ कभी परिंदे चहकते थे
गिलहरी उछल कूद करती थी
हवा के झोंकों के साथ तरुओं की
डाल झूमती थी
जहान कभी अजगर का डेरा था
जो हाथियों,हिरणों का एक अखाड़ा था
अब बिल्कुल ठप,निर्जन प्रदेश में तब्दील
हो चुका है
दिनों दिन वृक्षों की कटाई हो रही है
पर्यावरणीय परिघटनाएं हो रही हैं
किसी को अंदेशा है भी या नहीं
जंगल पीला हो चुका है
अपना हिस्सा खो रहा है
जिजीविषा को तरस रहा है
निस्तब्ध, सितम सह रहा है
कोई न कहने वाला है अभी
गया तो आने वाला है न कभी
पारितंत्र सब नष्ट हो चुका है
जंगल अब जमीं बन चुका है
अजगर का डेरा धराशयी हो चुका है
वानरों का समूह पलायन कर चुका है
दूर किसी चिर हरित जंगल में !
जहाँ कभी बवंडर आकर थमता था
आज यही उसका उद्द्गम
कभी मधुमास का अगवा था
जो कभी पलाश के पुष्प से सुसज्जित होता था
अलि मेहमान बन आता था
अब विकाशवाद की आग में जल रहा है
कहीं यह विकाशवाद का विलयन तो नहीं
जिसमें सब घुल रहे हैं
कहीं शहरीकरण का दुष्प्रभाव तो नहीं
है न ये ! सोचो हे साखी।