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Reena Devi

Abstract

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Reena Devi

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अंतर्द्वंद्व

अंतर्द्वंद्व

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न जाने मैं किस अनजान, सफ़र पर चल रही हूं

कभी पढ़ने को मचलती कभी चित्रकारी कर रही हूं।


धूमिल मार्ग दिशाहीन सी मैं अक्षम हूं निर्णय लेने में

जिसे देखती हूं उस जैसा करने को मचल रही हूं।


न जाने मैं किस अनजान सफ़र पर चल रही हूं

वनमृग दौड़े कस्तूरी ढूंढ़ता मैं भी दौड़ रही हूं।


शमित हुई न तृष्णा मन की मैं भी बदल रही हूं

न जाने मैं किस अनजान सफ़र पर चल रही हूं।


संसार सागर गहरा बड़ा कैसे पार कर पाऊंगी

बिन नैया मैं चल पड़ी बीच मझधार मर जाऊंगी।


धारा बहती जिस दिशा में मन मैं भी चल रही हूं

न जाने मैं किस अनजान सफ़र पर चल रही हूं।


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