अनकही
अनकही
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कल जो मैं गुज़रा
मुझसे होकर तो देखा
दिल की खामोश दीवारों पर
अनकहे लफ़्ज़ों की
एक मोटी परत जमी है,
मैं ज़रा देर ठहर कर
उसे कुरेदने लगा।
शायद! कोई लफ़्ज
अब भी ज़िन्दा दबा हो
मेरी आहट सुनकर वो
कुछ बोल उठे और
मेरी अनकही भी बयाँ कर दे।
एक अरसा हुआ
खुद से होकर गुज़रे
कल देखा भीतर
सब पुराना हो गया है।
ख़्वाहिशों के जाले हैं
हर तरफ जमे हुए,
टूटे पड़े एहसासों पर
उम्मीद की धूल जमी है।
मैं आंखों की नमी से
एक एहसास पोंछने लगा,
शायद! उस नमी से वो
फिर चमक उठे और
मुझमें भी कुछ नया कर दे।
मेरी अनकही भी बयाँ कर दे।