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Chandra prabha Kumar

Abstract

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Chandra prabha Kumar

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अनकही व्यथा

अनकही व्यथा

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मैं किसी की अनकही व्यथा हूँ,

पास आकर भी जिसे है लौट जाना,

अभिव्यक्ति द्वारों पर आकर भी,

जिसे है लौट जाना। 


नयनकोरों को भिगोकर भी,

अश्रु लिए ही लौट जाना। 

वाणी का आधार पाकर भी, 

रुद्ध हो मुख से लौट जाना,


लिए कितने उच्छ्वास,

लिए कितने विश्वास, 

मन ही मन में रह जाना,

भरी भरी ही रह जाना। 


 आँखों में घुमड़ते सावन हैं,

मुख में गरजते बादल हैं,

पर इतना सा भी आधार नहीं, 

इतना सा भी अधिकार नहीं ,

कि सावन जरा बरस ले, 

कि बादल ज़रा गरज ले।


                     


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