अनकही बातें
अनकही बातें
बचपन में जब अध्यापक बिना बात डांटते थे
हमारे होंठ गुस्से और क्षोभ से कुछ बुदबुदाते थे
जो बातें दिल के कोने से निकलने को बेताब थीं
शांत रहकर उन्हें दिल ही दिल में दबाये जाते थे।
जब घर में कोई मेहमान बच्चों सहित आता था
उसके बच्चों के प्रशस्ति गान से घर गूंज जाता था
मम्मी, पापा उस बच्चे के सामने बेइज्जत करते थे
तब अपमान के कारण चेहरा धरती में गढ़ जाता था
जब कॉलेज में पढ़ने आये तो जैसे पंख लग गये
ख्वाबों खयालों में बहारों के सतरंगी रंग भर गये
ये कमबख्त दो नैन किन्हीं नशीले नयनों से लड़ गये
मगर दिल के अरमान लबों तक आते आते रह गये
एक प्रेम कहानी हकीकत बनने से पहले मर गई
नौकरी पाने के चक्कर में हसरतें तमाम गुजर गईं
किसी अजनबी से यूं विवाह के बंधन में बंध गये
नून तेल लकड़ी के फेर में जिंदगी कैसे बिखर गई
ऑफिस में बॉस की तानाशाही के शिकार हम हुए
घर में "लेडी हिटलर" के हाथों बेइज्जत ना कम हुए
किसको सुनाएं, कौन सुनेगा सबका मेरे जैसा हाल है
लब सिले हुए, कंधे झुके हुए और कदम ? बेदम हुए।