STORYMIRROR

Rajni Sharma

Abstract

3  

Rajni Sharma

Abstract

अनकहे रिश्ते

अनकहे रिश्ते

1 min
221


आज फिर कुछ, लिखने को ज़ी चाहता है 

कहे अनकहे, रिश्तों को जीना चाहता है 

किस तरह मुकम्मल होगी, इन सांसों की वफा  

कैसे समझाऊँ तुम्हें, मर जाने को जी चाहता है 

इतना गिर चुके हैं, अपने ही नज़र में 

खता गर खता, दिनों दिन हो चली है 

सोचते हैं कैसे, अदा करेंगे इस जन्म में तेरा कर्ज 

क्यों मेरी सहजता, तुम्हें न छू पायी है 

जब भी टूटी बिखर के, तुम्हारे कन्धें की माला ने पिरोया है 

बिन सोचे आगे बढ़कर, हाथ हमेशा मेरा थामा है 

खुद को बर्बाद करके, मुझे समाज में इज्ज़त से बिठलाया है 

इतनी ख़ुशी आखिर क्या किसी ने, उस ईश्वर की मूरत में पाया है 

नहीं ! असंभव है ऐसा इंसान मिलना 

आज के परिप्रेक्षय में, जहां दर्पण भी सही अक्स न दिखला पाया है 

आपकी सच्ची रूह, उस खुदा की ईबादत का नूर है 

मैं जितना भी चरण धोकर पियूँ , वह उतना ही भावविभोर है 



Rate this content
Log in

Similar hindi poem from Abstract