अंहकार सर्वनाश की जड़
अंहकार सर्वनाश की जड़
बुद्धि भ्रष्ट कर देता जिस पर
अंह का आवरण चढ़ जाये
खुद सर्वोसर्वा बन कुसंगति
के चक्रव्यूह में फंसता जाये
इतिहास गवाह जिसने भी बल,
बुद्धि, धन, वैभव, का अहंकार किया
चूर - चूर हो गया पल में टूटकर
काल के गर्त में समा गया
क्या तुम क्या हम क्या ही देव,
दानव, मानव, किसी की बिसात
घमण्ड टूटा पराक्रमी रावण का
अंत समय बोले जय जय श्री राम
नम्रता, बुद्धि, विवेक, चातुर्य, सब
गुणों का घमण्ड करता नाश
नोच - नोच क्षीण कर दे ज्यों
दीमक लकड़ी की खाट
धूमिल हो जाते सब तख्तों ताज
अंगारों को धुंधला कर दे ज्यों राख
मृग तृष्णा की भाँति तड़पे दम्भी
लालच पिपासा ना कभी होती शांत
सर्व गुणों का नाश वहाँ
अहंकार का हो घर जहाँ
मानवीय मूल्यों की क्षति होती
जिंदा लाश बनी अंतरआत्मा
घमण्ड भाव का त्याग कर
प्रेम की लौ हृदय में जगा कर
मानवता के दिव्य प्रकाश से रौशन
कर दे चारों दिशा और आसमान।।
