अम्मा की चाय
अम्मा की चाय
चाय की चाह और मिठास ने ही
बाँथा था हम दोस्तों को
आते थे साथ साथ
वह मिट्टी का कुल्हड़
उसकी सौंधी गंध
खालिश गुड़ अदरक
गुड़ की चाय बुलाती थी हमे
बहुत दुर दुर से
रोज एक बार जरूर हम चारो
स्कूल से चल कर
पहुँचते थे वहां
दुर से ही सूंघ लेते थे
चाय की मीठी सुगंध हम
पहूँचते थे मुग्ध मोहित
सड़क किनारे उस झोपड़ी मे
लिपी पुती मिट्टी के
दो मुँहे चूल्हे पर
बैठी रहती थी केतली
भाँप फैंकती और
दूसरे पर खौलता रहता था दुध
और उन पर एक टक
टिकी होती थी वह बुढी सजग आँखे
सड़क के यात्रियो को
पिलाती थी कड़क चाय
थकान उतारती ताजा बेहतरीन चाय
हम चारो को देखते ही
नया दुध नई चाय पती
अदरक गुड़ से बनती थी चाय
सौंधी कुल्हड़ मे ढाल
सामने बढाती थी चाय
बहुत अपनी हो जैसे
मोहन नहीं आया आज
दिनेश नहीं आया आज
किसी एक की भी
अनुपस्थिति पर पूछती थी
अपने दिए नाम से बुलाती थी
अम्मा हमारे सही नाम से
क्यों नहीं बुलाती
यही नाम मुझे सही लगते हैं
क्योंकि इसमे मेरे बेटे मिलते हैं
तुम्हारे ही बहाने
लेती हूँ उनके नाम
जो चले गए मुझे छोड़
बहुत दुर भगवान के पास
मुझे बना कर अकेली
अनाथ अनजान,,,,!
अब तुम लोगों में
ही बसते है मेरे प्राण
चाय तो एक बहाना है
मोहन के संग
तुम्हें रोज आना है।