STORYMIRROR

VIVEK ROUSHAN

Abstract

4  

VIVEK ROUSHAN

Abstract

अकेला चलता हूँ

अकेला चलता हूँ

1 min
359

अकेला चलता हूँ

ठोकर खाता हूँ

गिरता हूँ

उठता हूँ


फिर चलता हूँ

चोट लगती है

दर्द होता है

बंद कमरे में रोता हूँ

आँसू भी गिरते हैं


हाँ ! आँसू गिरते हैं

बिल्कुल मोती की तरह

जो महज़ आँसू नहीं होते

मेरे अधूरे सपने होते हैं

जो अश्रु का रूप लेकर


मेरी आँखों से

अनायास हीं बह आते हैं

मैं उन्हें खूब निहारता हूँ

अपने हाँथों से पोछता हूँ


एक लम्बी साँस लेता हूँ

फिर मन में एक नए तरंग लिए

अपनी आँखों में नए

ख्वाब सजाता हूँ और


चल पड़ता हूँ उस राह की

ओर जहाँ मुझे जाना है

जहाँ मेरी मंज़िल है।


Rate this content
Log in

Similar hindi poem from Abstract