ऐ जि़न्दगी ले चल मुक्षे वहाँ
ऐ जि़न्दगी ले चल मुक्षे वहाँ
ऐ जि़न्दगी ले चल मुझे वहां
जहाँ नफरतों की दिवारे न हों ं
इंसान का इंसान से इंसानियत का नाता हों
हर सुबह मस्जिद मे आज़ान हों
चर्चो में धंटों की आवाज ,
मंदिर मे शंख नांद हों
गुरुद्वारे गुरू वाणी हों ।
ऐ जि़न्दगी ले चल मुझे वहाँ
जहाँ नफरतों की दिवारे न हों
जहाँ हर दिलों मे इंंसानियत के
ज़ज्बे आम हों ।
जहाँ हर मज़हप की शान में
श्रृद्दा से सर झुकते hon ।
ऐ जि़न्दगी ले चल मुझे वहाँ
जहाँ नफरतों की दिवारे न हों
जहाँ अमन चैन की बाते हों
जहाँ इंसान इंंसानियत के खून का प्यासा न हों
जहाँ इंसानी व़ासिन्दों की नफ़रती तासीर ना हों
ऐ जि़न्दगी ले चल मुझे वहाँ,
जहाँ नफरतों की दिवारे न हों
जहाँ हर इंसानों की प्यास बुक्षाये
बहती ऐसी गंगा धारा हों ।
जहाँ हिंदू ,मुस्लिम ,सिख, इसाई
गंगा जमनी तहज़ीब की पहचान हों ।
ऐ जि़न्दगी ले चल मुझे वहाँ
जहाँ नफरतों की दिवारे न हों ।
सारे जहाँ मे हम अमन चैन की एक मिसाल हों
जहाँ मुल्क के हर बासिन्दों के सर
देश की शान मे कटने को तैयार हों ।
जहाँ राम की रामायण हों
प्रभु इशू की पवित्र बाईबल हों
अल्हा की आसमानी पाक किताबें कुरान हों ।
ऐ जि़न्दगी ले चल मुझे वहाँ
जहाँ नफरतों की दिवारे न हों