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Bhawna Kukreti

Abstract

4.2  

Bhawna Kukreti

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अहसास

अहसास

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546


मेरा एक कमरा है

जहां बैठ कर देखती हूँ

मन की आँखों से

और बस लिखती हूँ।


वो कमरा

एक कोने में जिसके

बचपन मगन है

अपनी टोली में

शरारत की ठिठोली लिये।


दूसरी तरफ

गुनगुनाती रंग भरी

जवाँ हसरतें है

लोगों से खुद को छिपाती

एक दूसरे में समाती।


और मेरे पास के

कोने में खीझता बुढ़ापा है

जो कनखियों से देखता है

धीमे तेज़ आवाज़ में कभी

बड़बड़ाता है, खटपट करता है।


मगर लिखते हुए

बचपन, जवानी की मासूम

और सपनील दासताँ

दम छोड़ते दिख रहा है बुढ़ापा

और मेरी कलम

कांपती है उसकी आखिरी

बात लिखते।


मगर लिखती हूँ

की उसने मेरी नजर

और मन बांध लिये हैं,

जैसे अन्तिम क्षण में

ताकती हैं निगाहें

किसी एक को ही

वो कहता है मुझसे


"खीझता हूँ मैं

इसलिये रास नहीं आता,

टोकता हूँ इसलिये अखरता हूँ,

मेरी आशायें शूल हो जाती है

तुम्हारी आज़ादी में,

जीना चाहता था मैं भी

वो यौवन जो खोया है

इस उम्र में

तुमसे एक ही उम्मीद के लिये,

मगर खीझ जाता है सहारा भी

सुन सुन कर मेरी

वही घिसी पिटी सी बातें।


बुढ़ापा देखता है मेरी तरफ

लिख पाओगी क्या मुझे

बता पाओगी क्या

की असल में क्या चाहिये हमे?


लिख पाओगी

कभी तो लिखना

चाहिये था

अहसास हमे

हमारे होने का

हमारे अपनों के जीवन में।"


और

सुनते सुनते ही

मैं कलम हो जाती हूँ

और सिर्फ यह ही लिख पाती हूँ

और टूट जाती हूँ,

"अब अधिक समय नहीं है किसी के पास भी।"


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