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Akash Agrawal

Abstract

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Akash Agrawal

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अगर मैं एक किताब होता ...

अगर मैं एक किताब होता ...

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अगर मैं एक किताब होता, तो शायद वो मुझे पढ़ती...

और ये जान पाती, की मैं क्या चाहता हूँ।

अगर मैं एक किताब होता, तो शायद वो मुझे पढ़ती...

और अपने ज़हन में वहां रखती, जहाँ मैं जाना चाहता हूँ |

कोरे पन्नों पर काली श्याही के धब्बों में वो मुझे ढूँढती...

और शायद कहीं उसे नज़र आ जाता...

नज़र आ जाता कि, क्या खता थी उसकी।

बढ़ी बेसब्री से पन्नों को पलटते पलटते...

उन अक्षरों की भीड़ में मुझे कहीं ढूँढते ढूँढते...

वो भूल चुली थी कि, वो पूरी किताब ही तो मैं हूँ।

उस किताब का हर पन्ना और हर अक्षर भी मैं ही हूँ...

और किताब का शीर्षक भी तो मैं ही हूँ...

पर वो मुझे उस किताब का एक अक्षर ही समझती रही ...

और मैं हार गया।

इतनी बढ़ी किताब को मैं कैसे एक, बस एक ही अक्षर में समेट पाता...

अगर मैं एक किताब होता , तो शायद वो मुझे पढ़ती...

हाँ शायद ही वो मुझे पढ़ती...

क्यूंकि एक दिन उसने मुझे कहा था,

कि उसे किताबें पढना अच्छा नहीं लगता।


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