अब फर्क नहीं पड़ता ।
अब फर्क नहीं पड़ता ।
याद है जब तुझे देखने हर रोज
कॉलेज आया करता था
वहीं तेरी घीसी पीटी बातें,
चाय और वड़ा-पाव।
पर अब फर्क नहीं पड़ता।
क्या वक्त था की तेरी बेवकूफियाँ
मुझे मेरी अक्लमंदी से ज्यादा पसंद थी,
पर उस बेवकूफियों को चालाकी
समझ सकता इतना भी अक्लमंद
कहा था मैं।
तुझे जमाने से छुपा कर
अपना बनाकर रखनेवाला मैं,
खुद इतना अकेला हो गया हूं
जैसे अपने आप से मिले
सदियां बीत गई हो।
बड़ा "राजा" बेटा था मैं घर का
जब एक खिलोना टूटने पर
किसी को सोने नहीं देता था,
आज दिल टूटने पर खुद सो
नहीं पाता।
संभाल कर रखी है तेरी दो तस्वीरें
की जब कभी भी तेरी याद आए,
इतनी तसल्ली दे सकूं दिल को,
की तू कोई खिलौना नहीं ।
आखिरी सलाम के साथ आखिरी पैगाम,
हाँ अब फर्क नहीं पड़ता क्योंकि
फर्क तुझे तब भी नहीं था
जब मुझे फर्क पड़ता था।

