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Abhisekh Prasanta Nayak

Abstract

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Abhisekh Prasanta Nayak

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अब मेरी हर रात की कोई सुबह नहीं

अब मेरी हर रात की कोई सुबह नहीं

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अब मेरी हर रात की कोई सुबह नहीं,

अंधेरों में जबसे मैं बसने लगा हूं।

दिखाई देती नहीं है अपनी खुशियां,

बरबादी पे अपने जबसे हंसने लगा हूं।


मेरा वक़्त का घाव कितना गहरा है,

हर तरफ़ मेरे छाया उतना अं‌धेरा है‌।‍‍

अब और ना कर सके कोई इंतज़ार,

उम्मीदों का जबसे खोया यह सवेरा है।


अंधाधुन बजता है अब हर कानों में

नफ़रत के सुरों में जबसे बजने लगा हूं।

अब मेरे हर रात की कोई सुबह नहीं,

अंधेरों में जबसे मैं बसने लगा हूं।


हां, गलतियां यूं हज़ारों किया है मैंने,

पर क्या मुझे सुधारने का कोई हक़ नहीं।

जिन्दगी तो किसी की बस में नहीं रहती,

उस पल को मुझे दोहराने का कोई हक़ नहीं।


पट्टियां बांध के यूं अपने ही आंखों पे,

दर्द के राहों पर तबसे चलने लगा हूं।

अब मेरे हर रात की कोई सुबह नहीं,

अंधेरों में जबसे मैं बसने लगा हूं।


दर्द इतना हैं कि मैं खुद सह ना पाऊं,

बातें इतना है फिर कभी कह ना पाऊं।

अब तो हर तरफ़ मेरे जेल सा लगता है,

कि अब दिल भरके मैं कहीं रह ना पाऊं।


मौत को दस्तक में लाके यूं खुद-ब-खुद,

जीते-जी मशान में तबसे जलने लगा हूं।

अब मेरे हर रात की कोई सुबह नहीं,

अंधेरों में जबसे मैं बसने लगा हूं।


मैं करता तो भला क्या कर सकता था,

बदलने वाला तो यहां कुछ है ही नहीं।

वो आग जगाकर अब क्या फायदा,

जलने वाला तो यहां कोई है ही नहीं।


चल पड़े हैं सब आज मेरे ख़िलाफ़,

कड़वी बोली मैं जबसे कहने लगा हूं।

अब मेरे हर रात की कोई सुबह नहीं,

अंधेरों में जबसे मैं बसने लगा हूं।


नामुमकिन-सा हरपल क्यों लगता है,

चेहरे पे मेरी जबसे यूं उदासी छायी है।

कि दर्द को यूं ऐसे इतना सहता हुआ,

जाने मुझमें कैसी ये बेबसी आयी है।


अब तो मेरे हर तरफ़ ही सन्नाटे है,

ख़ामोशियों को मैं जबसे सुनने लगा हूं।

अब मेरे हर रात की कोई सुबह नहीं,

अंधेरों में जबसे मैं बसने लगा हूं।


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