आत्म मंथन
आत्म मंथन
ज़िन्दगी में हैं झमेले कितने
क्यों सोचता है तू ए इंसान
अरे कर्मों का फल निपटा ले
पल दो पल का है तू मेहमान!
शोहरत गफलत का मोहताज न बन
मेरा- तेरा साथ जायेगा नहीं
औकात अपनी एक तिनके की नहीं
नसीब से ज़्यादा तू पायेगा नहीं !
जो बोया था जन्मों में पिछले
थाली में वह तू परोसकर लाया है
कर्मों का लेखा जोखा समझ ले अब
कर कुछ अच्छा, यह मौका तूने पाया है !
सारी ज़िन्दगी तू पिसता रहेगा
सिर्फ फ़र्ज़ तेरा इसको दुनिया समझेगी
बिस्तर होगा जब तेरा ढेर लकड़ियों का
साथ में कोई भी लेटेगा नहीं !
हर सुबह उठ हाथ जोड़ ले
उस महाशक्ति महा परमात्मा को
कुछ कदम चलकर थोड़ा सुस्ता भी ले
थोड़ा सा समय दे, अपनी अंतर आत्मा को !
दम है जब तक सांसों में तेरी
तब तक है तेरी औकात
जिस दिन तेरी सांसें काटेंगी
विलुफ्त पल भर में होगी यह मायावी सौगात!
वह दुःख का मेला भी कुछ पल का होगा
कुछ आँसूं भी तो बहेंगे ज़रूर
पर पलक झपकते ही भूल भी जायेंगे
मत कर तू किसी पर भी गरूर!
फ़र्ज़ क़र्ज़ है, बस निभाता जा
पर कर्मों पर अपने थोड़ा ध्यान लगा
खाली हाथ वापिस जाना है
कर सच्चा आत्म मंथन ज़रा !
जीवनरूपी नया का खुद तू ही पतवार
और है तू ही खेवनहार
उसकी सृष्टि पहचान उसका इशारा भांप
है सबसे बड़ा वही तारणहार!
