आखिरकार जल ही रहा हूँ मैं
आखिरकार जल ही रहा हूँ मैं
देख ले !
आज एक रात फिर से
निपटा रहा हूँ मैं
तेरे ही आँचल मे
रे तन्हाई !
आज तु कठीन है, दर्दनाक भी है
पहले से काफी बढ़कर,
कहींं ज्यादा है
फिर भी झेल रहा हूँ मैं
भीड़ में खड़ा तन्हा सा मैं
समंदरों से घिरा टापू सा मैं
अपनों मे ठहरा पराये सा मैं
अंजान शरीर मे भूत सा मैं
ऐसे एहसासों के बावजूद
साँसे जोड़ रहा हूँ मैं
शायद मौत आयी नहीं अबतक
तभी तो ज़िन्दा खड़ा हूँ मैं
कई रोजों से
आँखें बरसने को तैयार हैं
फिर भी
कुछ टपकें आँसूओं के बदले
स्याही के चंद बूंद
कलम से कागज़ पर
मानो यों उतार फेंक रहा हूँ मैं,
जैसे आज की भीड़ में
इस दशहरे की आखरी रात मे
रावण की जलती रूह से
उछल उछल कर
आग के लपटों सा लपक रहा हूँ मैं
पर, हाय !
आखिरकार जल ही रहा हूँ मैं।