आखिर कुसूर किसका है
आखिर कुसूर किसका है
जिला तेरा भी हिला होगा ये कयामत देखकर,
रूह तो काँपी ही होगी किसी की हैवानियत देखकर।
सुना तो होगा किस्सा तुमने भी कल रात का,
जो बनेगा सुर्खियां कुछ दिन हर अखबार का।
पलट के पन्ने तुम भी चल दोगे अपनी ज़िन्दगी में आगे,
पर आवाज़ मेरी दबी ही रहेगी इस पूरे जहाँ के आगे।
कोई बताये आखिर कुसूर क्या था मेरा,
क्या लड़की होना ही गुनाह था मेरा?
सज़ा उस ज़ालिम के लिए किसी ने भी न सोची,
और मेरी ही गलतियां तलाशने में नींद आधी करदी।
कुसूर अगर कपड़ों का था पर सज़ा तो बुरखे को भी मिली,
कुसूर अगर उम्र का था तो सज़ा एक मासूम को भी मिली।
कुसूर अगर अँधेरी रात का था तो उजाले में भी बेचैनी क्यों,
कुसूर अगर जगह का था तो खौफ अपनों से क्यों।
तड़पायी गयी, जलाई गयी, दफनाई गयी,
यही मेरे हिस्से में क्यों?
हर मौसम की तरह पारखी गयी,
यही मेरे नसीब में क्यों?
कल एक सुबह के साथ फिर एक आवाज़ उठेगी,
सड़कों पर इन्साफ के नारे और मोमबत्तियां जलेंगी।
फिर कुछ दिन में थम जाएगी ये चिंगारी,
बन के रह जाउंगी में बस चंद लफ़्ज़ों की कहानी।
