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"आकाशात् पतितं तोयं..."

"आकाशात् पतितं तोयं..."

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सागर से उठी बूँद,

बादल बनी,

गिरी धरा पर

बन कर बारिश

बह चली

बनकर नदी,

परबतों से

मैदानों से,

खेतों से

खलिहानों से,

कभी मंथर तो

कभी तीव्र गति से

बहाती अपने साथ

जो भी आया

लहरों में

खुद प्यासी फिर भी

बुझाती प्यास

धरा की

और दौड़ती

दिनरैन अधीर सी

ज़िन्दगी सी 

करने को आलिंगनबद्ध

अपने सागर को

मृत्यु ज्यों

और फिर बन वाष्प कण

चल पड़ती आसमान की ओर

और फिर शुरू हो जाती

नवयात्रा, नवजीवन की

यही तो है जीवन दर्शन...

आकाशात् पतितं तोयं

सागरम् प्रति गच्छति...

सागरम् प्रति गच्छति..


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