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L. N. Jabadolia

Abstract

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L. N. Jabadolia

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आज प्रकृति फिर मुस्कुरा रही है

आज प्रकृति फिर मुस्कुरा रही है

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हे ! अबोध मानव, सृष्टि के अंश,

बुद्धिमता के वंश , क्यों फैलाया दंश,

क्या तुम अनजान हो प्रकृति से,

कोहराम से, या शक्ति से,

अब झेलो उसका कहर,

नहीं करेगी वो रहम ,

तेरे ही कुकर्मों का फल ,

कई कसूरवारों ने भुगता और

बेक़सूरवारों ने भी भुगता,

प्रकृति स्वतः शक्ति मान है,

ईश्वर है, तेरी भक्ति व आन है,

आज फिर नियम खुद बना रही है ,

और सब कुछ संतुलित कर रही है,

देख , आज प्रकृति फिर मुस्कुरा रही है ।

हाँ, आज प्रकृति फिर मुस्कुरा रही है ।।

देख हे ! नर नार, हाँ,आज देख,

वो हंसती हिम की गगनचुम्बी चोटी,

दुत्कारती है तेरी नीयत खोटी,

वो स्वच्छ गंगा जमुना का होता नीर,

तेरी आँखों में चुबता तीर,

तू मर रहा है विषाणु रोग में ,

सजा भुगत अपने कर्म योग में ,

तू है अपने ही घर में बंद जानवर,

और पशु पक्षी बन गए नर,

विचरण , कलरव करते चिड़ा रहा है

और तुम मानव आज गिड़ गिड़ा रहा है

लेकिन , स्वच्छंद अपने पर्यावरण में,

आज प्रकृति फिर लुभा रही है ,

वो परत ओज़ोन की फिर मुस्कुरा रही है।

देख, आज प्रकृति फिर मुस्कुरा रही है ।

हाँ, आज प्रकृति फिर मुस्कुरा रही है ।।

अपने अकर्मों से प्रकृति को खूब नोचा,

जरा खुद के भविष्य का भी नहीं सोचा,

प्रकृति जिसने तुझे गोद में खिलाया,

माँ का सम्पूर्ण प्यार दिलाया ,

लेकिन तुमने उसे क्यों रुलाया,

मशीनी ज़माने ने उसे कहराया,

समझी नहीं पीड़ा उसकी, हे हृदय हीन,

प्रदूषित कर सीना झलनी किया दयाहीन ,

हे मानव, अब भी संभल जाओ,

तेरा नहीं अधिकार,, है उसका शृंगार,

तू बस कठपुलती है, वो कर रही संहार

सृष्टि के तांडव का ये आभास है।

पर्यावरण संतुलन चेतना का प्रयास है,

तेरा छद्म घमंड आज चूर है,

प्रकृति का निखरता नूर है,

अनिल-अनल और वात - जल,

आज फिर वो संतुलित बना रही है

देख वो प्रकृति फिर मुस्करा रही है,

हाँ, आज प्रकृति फिर मुस्करा रही है ।।



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