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Mayank Kumar

Abstract

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Mayank Kumar

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आज फिर मेरे घर की भीत पर

आज फिर मेरे घर की भीत पर

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आज फिर मेरे घर की भीत पर,

किसी दीये की लौ ने कालिख पोत दिया

मिट्टी की तेल में अरमानों की बाती से,

दीये को सुलगाया था, किसी ने आज फ़िर से ..

पर, अपने अंधकार को खत्म करते-करते ही;

रोज की तरह उसने मेरी बाती को ही,

फिर थोड़ा-थोड़ा राख़ कर.., फूंक दिया ,

आज फिर मेरे घर की भीत पर,

किसी दीये की लौ ने कालिख पोत दिया ।


किसी के द्वारा अपनी हथेली को उस लौ के ऊपर

पता नहीं क्यों ! पर रोज़ कुछ देर रखा जाता था ,

औऱ कुछ पल बाद हथेली पर जमा राख को देखकर

रोज़ अनचाहा घबराहट के साथ,

उसके द्वारा अपनी हथेली पर

जमा राख़ को धो लिया जाता था,

मेरे घर की भीत पर जमा राख

जस का तस उपस्थित रहता था ,

जैसे हर रोज उपस्थित रहा करता है।

किसी के द्वारा उसे भी मिटाने की

कोशिश की जाती थी

लेकिन वह मिटता नहीं था

और फैल जाया करता था।


दूसरी रात की अंधकार को मिटाते-मिटाते

थोड़ा-थोड़ा और भी विकराल होता जाता था,

आज फिर मेरे घर की भीत पर,

किसी दीये की लौ ने कालिख पोत दिया !


आज किसी के द्वारा उस दीये को औऱ

उस अरमानों वाली बाती को,

किसी ने अपने मकान के स्टोर में,

अतीत समझकर कैद कर दिया।

तथा चकाचौंध में खुद को रोशन कर लिया

लेकिन आज भी जब शहर की बत्ती गुल होती है,

सारे चकाचौंध अंधेरी चादर ढक कर सो जाती है।

तब उस स्टोर से वह दीया औऱ अरमानों वाली बाती,

उसके मकान के कमरे को रोशन किया करती हैं ।

लेकिन फर्क इतना होता है कि,

अब मेरे गांव वाली भीत जो कालिख से भर चुके हैं,

उस पर राख़ का कोई असर नहीं होता।

परंतु मेरे अरमानों की बाती मोमबत्ती-सा

कुछ पल में ही ख़ाक हो जाती है

और उसके कमरे की पुट्टी वाले दीवान पर कालिख,

गांव की भीत-सा अनचाहा पर, दस्तक दे जाती है ..! !


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