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Arunima Thakur

Inspirational

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Arunima Thakur

Inspirational

मैरिज एनिवर्सरी या जन्मदिन

मैरिज एनिवर्सरी या जन्मदिन

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"ओहहो तुम औरतें भी ना तैयार होने में कितनी देर लगती हो, अब चलो भी"। 


मुझे मेरे पति की खीझ भरी आवाज़ सुनाई दी। ये पति लोग भी ना, इन्हें क्या मालूम तैयार होना क्या होता है । शर्ट पैंट चढ़ायी, बहुत हुआ तो कोट डाल लिया, बालों में उँगली फेरी, परफ्यूम डाला, हो गए तैयार। पर हमें तो समय लगता है नख से शिख तक हर अंग का श्रृंगार करना होता है और क्यो न करूँ ? आज मेरी पक्की वाली सहेली आस्था की शादी की दसवीं सालगिरह की पार्टी है। शादी के बाद से या यूँ कहूँ की कालेज से निकलने के बाद से हम एकदम ही बिछुड़ गए थे। कुछ महीनों पहले ही मेरे पति का इस शहर में स्थानांतरण हुआ है। उस दिन यूँ ही बाजार में यह (आस्था) मिल गयी, तो पता चला बहुत सी सहेलियाँ इसी शहर में है। बाते तो बहुत थी पर हम दोनों ही थोड़ी जल्दी में थे तो फ़ोन नंबर एक दूसरे को दे कर बचपन को मायूस छोड़ कर जिम्मेदारी की चादरे लपेट कर आगे बढ़ गये। 


नई जगह, नया परिवेश , घर व्यवस्थित करना, बच्चों के स्कूल इन सब में व्यस्त रहने के कारण सहेलियों से मिलना तो नहीं हो पाया था हाँ फोन पर बाते होती रहती थी। इसीलिए मेरे लिए तो यह एनीवर्सरी पार्टी से ज्यादा रियूनियन पार्टी है।मैं बहुत उत्साहित हूँ आज मैं अपनी सारी बिछड़ी सहेलियों से मिलुँगी।


जब हम पार्टी हॉल पर पहुँचे तो हॉल की सजावट बिल्कुल बच्चों की पार्टी जैसी थी। जगह जगह फ्रोजन, सिंड्रेला, रेपंजल और मोआना परियों के कटआउट थे। हमें लगा हम कहीं गलत जगह तो नहीं आ गये, शायद पता या हाल का नाम. . . । मोबाइल में देखा आमंत्रण मैसेज में पता तो यही था। कहीं मुझसे सुनने में कुछ गलती तो नहीं हो गयी ? यह उसकी शादी की सालगिरह थी या उसकी बच्ची का दसवाँ जन्मदिन ? या फिर क्या पता दोनों शायद एक ही दिन पड़ते होगें, इसलिए ऐसी सजावट है। अन्दर की सजावट भी बहुत सुंदर थी। सामने स्टेज पर मेरी सहेली फालसाई रंग के गाउन में थी सिर पर क्राउन था। हाथों में हल्के फालसाई रंग के रेशमी ग्लब्ज (दास्ताने), कुल मिलाकर बिल्कुल परी लग रही थी। मेरे पति बोले हो ना हो आज उसका जन्मदिन ही होगा, शायद तुमसे सुनने में कुछ गलती हुई होंगी। पर मैं सब कुछ भूल सकती थी उसका जन्मदिन नहीं। उसका जन्मदिन तो छब्बीस जनवरी को होता है। वह स्कूल के समय में बोलती भी थी कि मेरे जन्मदिन पर तो पूरे देश में लड्डू बाँटे जाते है। मैं बहुत कौतुहल से उसे देख रही थी। जितना हम औरते उत्सुक होती है यह पति लोग उतने ही उदासीन। मतलब मेरे चेहरे की पल पल बढ़ती उत्कंठा के बावजूद भी मेरे पति का चेहरा ऐसा था कि फ़र्क क्या पड़ता है खाओं पिओं उपहार दो और निकलों।


खैर हम एकदम समय पर पहुँच गये थे। सामने स्टेज पर केक काटने की तैयारियाँ हो रही थी। एक बहुत सुंदर सा कपॅल केक लाकर रखा गया। आस्था व उसके पति ने केक काटा। अब मेरे दिल को संतोष हुआ कि हाँ शादी की सालगिरह ही है। पर केक काटने के साथ ही पीछे सुमधुर आवाज़ में गाना बज रहा था, "मेरे घर आयी एक नन्हीं परी चाँदनी के हसीन रथ पे सवार... "। परिवार जनो मित्रो को केक खिलाने के बाद, दोनो हाथ पकड़कर डॉस फ्लोर की तरफ बढ़ गये,गाना शुरू हुआ "आए हो मेरी जिन्दगी में तुम बहार बन कर मेरे दिल में यूँ ही रहना.." । मैं सोच रही थी यह गाना तो तब बजना चाहिए था जब केक काटा जा रहा था। खैर कुछ और लोगों के साथ हम भी उठकर डांस फ्लोर पर जाकर नाचने लगे गाने बदलते गये।


काफी देर बाद सब आकर अपनी अपनी जगह पर बैठ गये। मेज पर ही खाना परोसा जा रहा था। तभी सामने प्रोजेक्टर पर एक दृश्य उभरा और वापस से गाना शुरू हुआ मेरे घर आयी एक नन्हीं परी . . . . उसमें वीडियो क्लिप्स और फोटो थी। आस्था की शादी की पहली वर्षगांठ से लेकर अब तक की। लगभग हर क्लिप में एक वृद्ध महिला बहुत ही उत्साह से नाच रही है, खुशिया मना रही है। तभी शायद आस्था की सासूमाँ स्टेज पर आ कर बोली, "माँ आज आप भले ही भौतिक रूप में हमारे साथ नही हो पर मानसिक रूप से आप हमेशा हमारे साथ हो। देखो आपकी इच्छानुसार हमने आस्था की शादी की दसवीं सालगिरह खूब धूमधाम से मनाई । जैसे आप चाहती थी उसने वैसे ही कपड़े और गहने पहने है। बस आज हर बार की तरह हमारा हाथ पकड़ कर नाचने के लिए आप नही हो माँ"।


उसके बाद खाना शुरू हो गया। मैं भी अपनी सहेलियों से मिलने बातें करने में व्यस्त हो गयी । सबका नंबर लिया अपना नंबर दिया । मिलने मिलाते रहने का वादा किया। पर इन सबके साथ इस पार्टी की पहेली मेरे दिमाग मे बराबर घूम रही थी। किससे पूँछू ? समझ ही नही आ रहा था। बाकी सभी लोग सालो पहले से एक दूसरे से परिचित थे इसलिए शायद उन्हें सजावट , गाने या किसी बात की हैरानी नही थी। चलते वक़्त जब मैं आस्था से मिल कर उसे शुभकामनाएं दे कर निकल रही थी आस्था ने बोला, "आज तो तेरे साथ बैठ ही नही पायी। कितनी सारी बाते करनी है। अगर फुरसत में हो तो परसो शाम को घर आ न, साथ बैठ कर बाते करेंगे"। अंधा क्या चाहे दो आँखे, मैं तो इतनी उत्सुक थी कि अगर वह अभी रोकती तो भी मैं रुक जाती। खैर मैं परसो आने की सहमति दे कर घर आ गयी। दो दिन कैसे कटेंगे मेरे ? पति से चर्चा करना तो व्यर्थ ही था। कुछ सीधी सरल बाते पति लोग समझ ही नही पाते है। दो दिन मेरे पचासों अटकले लगाते बीते।


आज मुझे जाना था आस्था के घर तो दोपहर से ही शाम के खाने की पूरी तैयारी कर दी थी कि कही आने में देर हो गयी तो....। हाँ घर मे सासु माँ है, पति भी रसोई में सहयोग करते है, वैसे कभी मन करे तो खाना बाहर से मंगवा कर भी खा लेते है। पर यह सब तब है जब उनका मन करे, तब नही जब आपकी मजबूरी हो या आप चाहे। कहना नही चाहिए सासु माँ अक्सर अपने बेटे की पसंद का बनाती रहती है। हाँ मेरे बच्चों की देखभाल भी करती है (हा भाई मेरे बच्चे सिर्फ मेरे, मैं मायके से लाई थी न। उन (पति) के बच्चे तो तब जब बच्चे कुछ अच्छा करते है ) । सब से कहती है कि हम तो बहु बेटी में फ़र्क़ नही करते, हमने अपनी बहू को पूरी छूट दी है। जो मन आये करे, जो मर्ज़ी पहने । पर क्या सचमुच, बस इतने से ही बहु बेटी बराबर हो जाती है क्या ? मैं भी न क्या फालतू बाते ले कर बैठ गयी। दिमाग को रोक कर हाथ जल्दी जल्दी चलाने लगी।


बच्चों को दूध और नास्ता निकाल कर, सासूमाँ को चाय और गर्म नास्ता देकर, पति का नास्ता हॉटकेस में रख कर, सारे बर्तन धुल कर , कपड़े तह लगा कर, संक्षेप में जितना संभव था काम समेट कर कि आने के बाद कोई पंचायत नही चाहिए । मैं तैयार हो कर, सासु माँ को बता कर कि रात के खाने का इंतजाम कर दिया है देर नही होगी, कैब कर के निकल गयी। आस्था के घर पहुँच कर अच्छा लगा। दरवाजा मुस्कुराते हुए उसकी सासु ने खोला और आस्था को आवाज़ लगाते हुएं बोली, "बेटा तुम्हारी सहेली आयी है"। 


मैं मन ही मन सोच रही थी हम बहुओं को बेटी का दर्जा तक तो मिलता नही है फिर ये बेटा क्यों पुकारना। पर अच्छा भी लगा कि उसकी सासु ने दरवाजा खोला। मेरे घर मे तो दरवाज़ा मुझे ही खोलना होता है चाहे किसी भी काम मे व्यस्त हूँ, मज़ाल है जो कोई खोल दे। कभी कभी लगता है कि 'हम पाँच' वाली 'स्वीटी' की तरह मेरे घर में भी कोई होता दरवाजा खोलने के लिए, काश।


"अरे कहाँ खो गयी आओ अंदर आओ न", कहते हुए आस्था मेरे गले से लिपट गयी। सालो से बिछड़ी सहेलियों के पास ना जाने कितनी बाते थी, नुक्कड़ वाले चश्मिश से लेकर, पति बच्चो, मायके की। हम बातें कर ही रहे थे कि आस्था की सासु माँ मिठाई पानी रख कर जाने लगी तो आस्था ने उन्हें भी हाथ पकड़ कर बैठा लिया, "हमारे साथ बैठो न माँ" । मैं सोच रही थी अब तो संभाल संभाल कर बोलना पड़ेगा । कही कोई ऐसी वैसी बात मुँह से निकल गयी तो ? पर आस्था एकदम सामान्य हो कर बाते कर रही थी , हमारी शैतानियों की, हमारे कॉलेज बंक करने की यहाँ तक कि कॉलेज के हमारे पहले क्रश की भी। मैं आस्था का मुँह देख रही थी कि चुप कर सास बैठी है तेरी..... बाद में सुनाएगी।


तब से आस्था बोली, "चाय पीयेगी या कॉफी"? 


मैं हँसते हुए बोली, "ना बाबा ना, चाय और तेरे हाथ की, चाय तो तू रहने ही दे । तू तो कॉफ़ी ही पिला दे"। 


आस्था बोली, "माँ ने मुझे अभी फर्स्ट क्लास चाय बनानी सिखा दी है"। 


मैने बोला, "सिखाई तो ऑन्टी ने भी थी" । हमारी इसी नोंक झोंक के बीच आस्था चाय रख कर आ गयी और अपनी सासु से बोली, "माँ यह आपकी एक्सरसाइज का समय है। जब तक बैठ कर हम बातें कर रहे है, आईये मैं आपको एक्सरसाइज करवा दूँ"।


 हम बाते करते रहे, हँसते रहे, कहकहे लगते रहे, चाय उबलती रही, आस्था सासु के पैर की फिजियोथेरेपी सी करवाती रही। घंटी बजी तो आस्था दरवाज़ा खोलने गयी, पीछे पीछे सासु भी। शायद बच्चे आये थे, बच्चों और आस्था के बाते करने की आवाजें आ रही थी। कितने खुश लग रहे थे। मैं सोच रही थी कि मेरी परिचित बैठी हो तो मैं बच्चो पर ध्यान ही नही देती हूँ कि बड़े हो गए है खुद कर लेंगे। पर नही, बच्चो को घर मे घुसते ही माँ चाहिए होती है। तब से आस्था की सासु ट्रे में चाय नास्ता लेकर आ गयी । वह बोली, "बुरा मत मानना आस्था अभी बच्चो के साथ है । तुम चाय शुरू करो वह आती ही होगी"। 


मेरी मन की उत्सुकता अब उफान पर थी, तो मैंने उनसे ही पूछ लिया, "आस्था की शादी की सालगिरह की पार्टी थी तो सजावट गाने सब अलग बच्चो जैसे क्यो" ?


वह मुस्कुराती हुई बोलीं, "मेरी सासु माँ की छवि एक सख्त और अनुशासन प्रिय महिला की थी जिसे तोड़ने की उन्होंने कभी कोशिश भी नही की। पर मेरे लिए वो माँ थी। इतने सालों पहले जब लोगो मे जन्मदिन मनाने का चलन भी नही था मेरी शादी की पहली सालगिरह पर उन्होंने मेरा जन्मदिन मनाया था। वो बोली, "तुम्हारा जन्मदिन भले ही कुछ भी हो पर मैंने तो एक बेटी के रूप में आज ही तुम्हें पाया था । मैं आज ही के दिन एक बेटी की माँ बनी थी । तो मैं आज के दिन ही तुम्हारा जन्मदिन मनाऊंगी"।


मैं बोली, "हाँ माँ वह तो ठीक है पर जन्मदिन मनाने की क्या आवश्यकता ? आपने मुझे बेटी माना, मान दिया, यहीं बहुत है"।


वह बोली, "ना बेटी आवश्यकता है, मुझे हमेशा अपने आप को याद दिलाने के लिए । जिस तरह एक छोटी बच्ची के सारे नाज़ नखरे हम उठाते है, उसी तरह तेरे नखरे मैं उठाऊँगी। जिस तरह बच्चों की गलतियों को माफ करते हैं, मुझे तेरी सारी गलतियाँ माफ करनी है। जिस तरह बच्चों को हम धीरे धीरे सिखाते है वैसे ही रीति रिवाज संस्कार सब धीरे धीरे तुझे सिखाने है। तुझ पर जिम्मेदारियाँ डालकर मुझे मेरे कर्तव्यों की इतिश्री नहीं करनी है। हाँ यह बात अलग है कि तुझे जल्दी बड़े होने का शौक हो तो...." ।


"नहीं नहीं माँ मुझे जल्दी बड़े नहीं होना", कह कर मैं उनके गले से लग गयी।


वह कहती थी कि लोग गलत कहते है कि बहु कभी बेटी की जगह नहीं ले सकती। वैसे उन (लोगों ) की आधी बात सच भी है। कैसे लेगी ? क्यों लेगी? आपने कितनी बार या कब उसकी माँ बनने की कोशिश की ? अरे हम बेटियों की सेवा टहल देखभाल लगभग बीस साल तक बगैर मुँह बनाएँ करते है। बहू चार दिन को बीमार पड़ जाए तो बुरी लगती है। करके देख लो, बहु के नाज़ नखरे दस साल उठा कर देख लो, ना बेटी से बढ़ कर मान दे तो कहना"।


बस उनकी परम्परा का निर्वाह कर रही हूँ। हमारे समय मे तो यह पार्टी वारटी होती नही थी और हालात भी इतने अच्छे ना थे । तो उन्होंने सोचा था कि जब मेरी बहु (उनके पोते की पत्नी) आएगी तब वो अपने अरमान पूरे कर लेंगी। बदकिस्मती से आज वो हमारे साथ नही है पर....।।


आस्था अंदर आते हुए बोली, "सॉरी यार, बच्चे आ गए थे। अरे चाय तो ठंढी हो गयी रुको मैं गर्म कर के लाती हूँ"। आस्था की सासूमाँ बोली, "नही तू बैठ गप्पे मार मैं बच्चो से भिजवाती हूँ"।


चाय पीते पीते आज मैं सच मे एक बहु को बेटी जैसा लाड़ दुलार सम्मान पाते देख रही थी। वहाँ से निकलते वक्त मैं एक गाँठ बांध कर निकली, मैं भी अपनी बहू को बेटी बनने का समय दूँगी। और हाँ सासूमाँ से माँ बनने की अपेक्षा नही रखूंगी, पर खुद से जरूर उनकी बेटी बनने की, उनके साथ बैठ कर बाते करने की, हँसने मुस्कुराने की, उनका, उनकी छोटी छोटी बातों का ध्यान रखने की कोशिश करूँगी।


विश्वास है मुझे छोटी छोटी बातें बड़े बड़े सकारात्मक परिवर्तन लाती है।


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