एक पैग जिंदगी
एक पैग जिंदगी
पत्नी के साथ बालकनी में बैठकर, चाय के एक एक कप के साथ वे उस खुशनुमा शाम का आनंद ले रहे थे, जब फोन की घंटी बजी थी ।
"पापा प्लीज़, ममा को भेज दीजिये यहाँ ! रंजना की तबीयत ठीक नहीं चल रही है, डाॅक्टर ने बहुत ध्यान रखने को कहा है ।"
चौंक से गये थे वह ....
"तेरी सास है न वहीं पर ! ममा की क्या जरूरत ? "
"नहीं पापा, उनकी तबीयत ठीक नहीं चल रही थी, वहाँ भी कुछ जरूरत आन पड़ी तो वे लौट गई हैं । ममा का प्रोग्राम बताइये तो मैं टिकट बनवा कर भेज दूँ ।"
अनूप की आवाज की घबराहट से उनके चेहरे पर व्यंग्य भरी एक मुस्कान तिर आई...
"बर्खुरदार, अब आपके छोटे से घर में माँ को रखने के लिये जगह निकल आएगी ? जब उसके हार्ट का अाॅपरेशन कराना था, तब तो आपका एक कमरे का फ्लैट बहुत छोटा पड़ गया था ?"
"छोड़िये न पापा वो सब, अभी मुझे बहुत डर लग रहा है ! नवाँ महीना है, किसी भी समय लेबर पेन शुरू हो गया तो मैं अकेले कैसे सँभालूँगा ये सब ?"
अनूप ने कहा तो जी और जल उठा उनका ...
"बस अपनी परेशानियाँ दिखाई देती हैं आप लोगों को ? हमारी याद तो तभी आती है जब स्वार्थ होता है ! कोई नहीं जायगा यहाँ से ! उसी समय कह दिया था न, कि भूल जाओ कोई माँ बाप जैसी चीज भी होती है ज़िंदगी में ?"
और फोन काट दिया था उन्होंने .... लगा, जैसे जलते कलेजे पर ठंढ सी पड़ गई हो.... कि अपने अपमान , आक्रोश और अंतर में पर्त दर पर्त जमा होते दुख निराशा का बदला ले लिया हो जैसे !
विजयी मुस्कान के साथ घूम कर जो देखा तो कप में बची आधी चाय वहीं छोड़कर, पत्नी अपनी कुर्सी से गायब थी ।
उसे खोजते हुए अंदर आए तो देखा, किचन में एक तरफ गोंद के लड्डू बनाने के लिये आटा भूना जा रहा था और दूसरी ओर मट्ठियाँ बनाने की तैयारी चल रही थी । वह कुछ पूछें या बताएँ, इसके पहले ही व्यस्त भाव से पत्नी ने कहा,
"बच्चों के लिये थोड़ा नाश्ता बना ले रही हूँ । यहाँ से खाली होते ही अपना सामान भी पैक कर लूँगी। आपके खाने पीने की व्यवस्था के लिये दीदी से बात कर लूँगी। मुझे तीन चार महीना भी लग सकता है, पर आपको परेशानी नहीं होगी। अनूप से कहिये, कल का ही टिकट बनवा दे, देर न करे ।"
बहुत कुछ कहना था पर सोहर गुनगुनाती पत्नी से अब क्या कहें, उन्हें समझ में ही नहीं आया ! वापस अपनी कुर्सी पर जाकर वे अनूप को फोन मिलाने लगे।