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माँ का तर्पण

माँ का तर्पण

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संयुक्त परिवार में जन्म लेने वाली मैं दिव्या। अपने सभी पारिवारिक सदस्यों की चहेती। केवल अपनी माँ को अपना शत्रु समझने की भूल बचपन से ही करती आई। आज दसवीं कक्षा में पहला कदम बढ़ाते ही मुझे अपने शिक्षकों द्वारा समझाई गई बातों से कक्षा में बैठे-बैठे अचानक अपनी माँ का स्मरण हो आया। जो नित दिन मेरी शरारतों के कारण पढ़ाई में हुए मेरे नुकसान को झेलती और कुछ भी कहने पर मैं उनसे बहस करने के लिए तैयार रहती। मैं सम्मान भरी नज़र से उन्हें कभी देख न पाती थी। क्योंकि केवल माँ द्वारा दी गई नसीहत मुझे कभी समझ न आती थी।

कक्षा- नौवीं से मिला मुझे सखियों का ऐसा संग कि बदलने लगे थे अब तो मेरे रंग, नित दिन मेरी माँ देखा करती थी मेरा काम करने का ढंग, पल-पल करती थी मैं उन्हें तंग। आज पहली बार मुझे अहसास हो रहा है कि आखिर मेरी हितैषी माँ का कहाँ था दोष ? मैं तो अपनी ही बनाई दुनिया में जीने लगी थी। कक्षा-नौवीं का परिणाम आते ही ४०/% अंक देखकर उड़ गए थे मेरे होश। घर जाने पर सबने मुझे गले लगाया, अपने-अपने ढंग से समझाया, परंतु मैं न जाने किस उधेड़बुन में लगी थी।

आज पहली बार अपनी माता जी से लिपट-लिपट कर खूब गुबार निकाल रही थी। स्वयं की गलतियाँ, इतने बुरे परिणाम, हर समय माँ का निरादर करने वाली मैं घमंडी आज दसवीं कक्षा में कदम बढ़ाते ही अपने भीतर एक अजीब-सा बदलाव महसूस कर रही थी। न जाने मैं किस कशमकश में बस निरंतर आगे बढ़ रही थी। केवल मेरी हितैषी व पूजनीय माता जी के अथाह प्रेम, अटूट विश्वास व जीवन की सत्यता दिखाने वाली उनकी नसीहत ने आज वो कमाल कर दिखाया कि मैं व्यर्थ की बातें भूलकर, समय को न गँवाकर, कमर कस कर स्वयं को पुस्तकों में रमाने लगी हूँ।

रात गई, बात गई, इस परिवर्तन से मेरे नेक जीवन की शुरूआत हुई।

जब जागो तभी सवेरा, जीवन में बदलाव हुआ मेरा।।


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