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प्रमाणपत्र

प्रमाणपत्र

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बचपन से ही कनक को पशुओं, पक्षियों और प्रकृति से प्रेम था। कभी भी कहीं भी कोई पिल्ला उठा लाती, कभी आस-पङोस में बिल्ली के बच्चों को दूध पिला आती, तो कभी चिङिया को अपने बारचे में देख नाचने लगती। फूल-पत्तियाें को प्यार से सहलाती पर कभी तोङती नहीं। यहाँ तक की कितनी ही बार अपनी थाली की रोटी भी गाय, गली के कुत्तों को खिला देती। माँ डाँटती पर अगले दो दिन बाद ही कनक का फिर वही कार्यक्रम चालू हो जता था।

शादी के बाद इस कार्यक्रम में कमी आई पर फिर भी किसी न किसी रूप में चालू ही था। प्रत्येक सन्डे गौशाला जाकर गायों को चारा खिलाना और कबूतरों को दाना डालना वो कभी नहीं भूली।


जब बेटा एक डॉगी को लाया तो उसकी सारी जिम्मेदारी कनक ने सहर्ष अपने जिम्मे ले ली। झबरीले बालों वाला, भूरे कलर का स्कूबी अब उसे घर का एक सदस्य ही लगता था। खाना खिलाना, नहलाना, उसको टीके लगवाना, सुबह शाम की सैर का ख्याल कनक ही रखती थी।


तभी तो आज सुबह उसे बहुत बुरा लगा।


हुआ यों कि गाँव से आये एक परिवारिक मित्र ने उसके स्कूबी पर सीधा आक्षेप लगाया, अरे भाभीजी आप कैसे रहते हो कुत्ते के साथ...। अरे हम तो जरा भी पास न आने दे इस कुत्ते को...। देखो तो कैसा टुकुर-टुकुर देख रहा है हमें... साला हरामी कहीं का...।


कनक को बहुत बुरा लगा। वो कुछ बोलती इससे पहले ही स्कूबी जोर से गुर्राया तो उस मित्र की तो धिग्गी बंध गई।


कनक ने कहा, भाई साहब मान-सम्मान सबको प्यारा होता है फिर चाहे वो इंसान हो या जानवर...। इसका नाम स्कूबी है आगे से इसे कुत्ता न कहकर स्कूबी कहें तो ठीक रहेगा।


पता नहीं डर के कारण या फिर समझाने का असर था कि भाईसाहब ने स्कूबी को दो-चार बार उसे उसके नाम से बुलाया तो वह भी दुम हिलाता उनके पास बैठ गया। भाईसाहब ने उसकी पीठ को सहलाया और उसे अपना चश्मा पहना दिया।


कमाल तो तब हुआ जब स्कूबी ने चश्मा पहनते ही पेपर को पाँव से अपनी ओर किया और पढने लगा।


भाईसाहब ने कनक को बुलाकर कहा, देखो क्या कर रहा है आपका स्कूबी...।


कुछ नहीं भाईसाहब, आपको अपनी समझदारी का प्रमाणपत्र प्रस्तुत कर रहा है कहकर कनक धीरे से मुस्कुराते हुए स्कूबी की पीठ सहलाने लगी।


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