मेरे हिस्से का दुख
मेरे हिस्से का दुख
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"सब अपनी खुशी में मग्न थे! पर रचना को मिठाई का मीठापन किसी ज़हर से कम नहीं लग रहा था। आंसू पलकों पर ऐसे अटके थे जैसे ओंस की बूंदे पत्तों पर। फिर भी रचना कड़ाही में पूरियां तलती जा रही थी। कड़ाही के तेल के छींटो से ज्यादा ज़ख़्म उसे लोगों के ठहाके दे रहे थे।"
तभी पीछे से आवाज़ आई, "बहू जल्दी जल्दी हाथ चलाओ!!"
रचना अपने आंसुओं को काबू कर एक जिंदा लाश सी रसोई के काम निपटा रही थी।
सुमित्रा जी बेटी के स्वागत में कोई कमी नहीं छोड़ना चाहती थी, आखिर बेटी अपने बेटे की शादी के लिए मां के घर न्यौता जो देने आ रही है।
80 साल की उम्र में पहुंचकर भी सुमित्रा जी ने बेटी और बहू के अंतर को बनाए रखा।
"बुआ जी आ गई!! बुआ जी आ गई!!" कहकर शोर मचाती हुई रश्मि दादी के कमरे में दाखिल हुई।
सुमित्रा जी "तू 22 साल की हो गई, अब भी बच्चों की तरह शोर मचा रही है!! जा मां का हाथ बंटा।"
रश्मि गुस्से से मां के पास चली गई।
रश्मि की बुआ अर्चना अपने पति के साथ पहुंची, मां ने दोनों को आशीर्वाद दिया।
फिर चाय नाश्ते के लिए रश्मि को आवाज़ लगाई।
रश्मि -" मां !! तुम ही जाओ! डांटने के लिए भी रश्मि चाहिए और काम करवाने के लिए भी!!"
रचना जैसे सुन्न हो गई हो!!
रश्मि ने मां का हाथ पकड़कर हिलाते हुए कहा -" मां!! कहां खोई हो!! बुआ जी आ गई है। दादी नाश्ता मंगवा रही हैं ।"
रचना -" बेटा!! तुम चाय ले जाओ!! मैं नाश्ता लाती हूं।"
इतने में रश्मि की बुआ अर्चना जी रसोई में आ गई!!
भाभी के गले मिली, -" भाभी!! बहुत दुख हुआ आपके भाई के देहांत के बारे में सुनकर!!"
रचना के आंसू जो जम गए थे मानो अर्चना के भावों की गर्मी से पिंघलकर आंखों में उतर आए , अपनी ननद के गले मिलकर रचना खूब रोई।
पीछे से सुमित्रा जी ने आवाज़ लगाई , -"रश्मि!! कहां रह गई। जमाई जी यहां आए बैठे है। नाश्ता बनने में कितनी देर लगेगी!!"
रश्मि चाय नाश्ता रखकर आई।
सुमित्रा जी -"दामाद जी! आप चाय पियो मैं अर्चना को लेकर आईं!!"
सुमित्रा जी ननद भाभी को यूं देखकर गुस्सा हो गई -" बहू!! तुझे कहा था ना मेरी बेटी के घर की पहली शादी है। न्योत्ने आईं है भाई भाभी को। इस शगुन के मौके पर अपने आंसू मत बहाना। "
अर्चना -"मां!! तुम ये कैसी बातें कर रही हो!! भाई गया है उनका!! दुख नहीं आयेगा क्या!! तुम 80 साल की उम्र में पहुंचकर भी ऐसे बातें कर रही हो!!"
सुमित्रा जी -" तो क्या करूं बता!! जाने वाले के साथ जाया थोड़ी जाता है!! हो तो आईं इसके साथ इसके मायके!! 50 बरस का था कोई जवान तो था नहीं!!"
रचना चुपचाप बस आंसू बहा रही थी!!
अर्चना -" मां!! भाई कितनी भी उम्र का हो भाई होता है। उसकी जगह कोई नहीं ले सकता!! मैं भी तो अपने भाई के घर आई हूं। तुम कितनी खुशियां मना रही हो। उनका तो एक ही भाई था। उनके लिए खुशियां कौन मनाएगा।"
सुमित्रा जी -" बेटा!! तू बाहर चल। नाश्ता कर ले!! दामाद जी क्या सोचेंगे!!"
अर्चना -" दामाद जी को पता चला ना की हमारे स्वागत के लिए तुम पकवान बनवा रही हो!! बहू खड़ी रो रही है!! तो एक मिनट नहीं रुकेंगे तुम्हारे दरवाजे!!
मैं तो सोच रही थी मेरी मां बाकी सास जैसी नहीं।
तुमने तो मुझे बहुत ही निराश कर दिया मां!!
अगर मेरी सास भी ऐसा करे तो क्या करोगी तुम!!
मेरी बेटी भी ब्याह के लायक हो गई;
उसे ऐसी सास मिलेगी तो!!
ना!! ना!! मैं तुम्हारे पाप की हिस्सेदार नहीं हूं मां!!"
सुमित्रा जी -" अरे बेटा!! माफ़ कर दे!! अच्छा चल तू ही बता क्या करूं!! इसका भाई तो वापिस ला नहीं सकती। इस उम्र में काम भी नहीं होते की काम खुद कर लूं!!
अर्चना -" मां !! किसी के दुख में शामिल होना ही उसके दुख की दवा है। दुख बांटने से बंट जाता है। तुमने तो हद ही करदी।
इतने पकवान, मिठाइयां क्या जरूरत थी!! "
रचना ने अपने आंसू पोंछते हुए कहा ,-" रहने दो दीदी!! जाने वाला तो चला गया!! मेरा दुख आपकी खुशियों के बीच क्यूं आए। चलो नाश्ता कर लो!!"
अर्चना -" नहीं भाभी!! मायका ही तो बेटी के दिल की ठंडक होता है। अगर मायके में कोई दुख हो तो छप्पन भोग भी कड़वे लगते हैं।
अगर हम आपके दुख को नहीं समझेंगे तो क्या फायदा रिश्तों के बोझ को ढोने का; जो दुख में कंधा भी ना दे सके!!"
सुमित्रा जी -" बहू माफ़ कर दे!! तुझे तैयार होकर पकवान बनाने को कह दिया!! तू चिंता ना कर!! हर ज़ख़्म भर जाता है।"
रचना -" मां जी !! जीना मरना इंसान के हाथ में नहीं। पर अपनों के जाने का दर्द हमेशा रहता है।
उनके जाने के दर्द का ज़ख़्म किसी अपने के प्यार से भरता है।
यूं बहू के मायके के दुख को ससुराल की खुशियों से छोटा समझकर ; बहू को जबरदस्ती खुशी मनाने के लिए मजबूर करने से वो ज़ख़्म हरा होता है, भरता नहीं है। "
अर्चना -" भाभी!! मैं माफी मांगती हूं। इस उम्र में आकर तो मां की बुद्धि ही काम करना बंद कर गई है। "
रचना -" नहीं दीदी!! बुद्धि तो सबमें होती है। बस भाव मर जाते हैं। हमारे दुख में दुखी वहीं होता है जो हमें अपना समझे।
भाई के जाने का दुख तो है ही। उससे ज्यादा ये दुख है कि शादी के 20 साल बाद भी बहू अपने मायके के दुख में दुखी होने का हक भी नहीं रखती!!
उसे ना चाहते हुए भी ससुराल की खुशियों में शामिल होना पड़ता है!"
सुमित्रा -" बहू!! माफ़ कर दे!! तू मेरी बेटी है!! मैं ही मूर्ख हूं जो दुनिया के बेफालतू के रिवाजों को ढों रही हूं।
ऐसा ना सोच बेटा!!
ये घर तेरा है। तेरा दुख ,मेरा भी है।"
रचना सासू मां के गले मिलकर खूब रोई।
इतने में रश्मि आईं -" बुआ जी!! फूफाजी बाहर इंतजार कर रहे हैं सबका!!"
सब बाहर गए।
रचना -" नमस्ते नंदोई जी!!"
नंदोई -" नमस्ते!! आपके भाई के बारे में सुनकर दुख हुआ!! आप चिंता ना करें मुझे अपने भाई जैसा ही समझे!! मैंने अर्चना को इसलिए पहले ही बोल दिया था कि सिर्फ नाश्ता करेंगे और न्यौता देने के साथ साथ आपका थोड़ा दुख भी बांट लेंगे!!"
रचना की आंखों में फिर आंसू छलक आए पर उसने खुद को संभालते हुए कहा -" अरे नहीं!! खाना खाए बिना नहीं जाने दूंगी!! आप बैठो!! आप जैसे नंदोई भगवान सबको दे। चलो दीदी आप भी चाय पियो!!"
सब मिलकर चाय पीने लगे।
दोस्तों!! उम्र चाहे कोई भी हो, अपनों के जाने का गम उतना ही दर्द देता है। जब कोई दुख बांटने वाला ना हो तो वो दर्द घाव बनकर हमेशा रिश्तों के बीच रहता है ।
बहू जब अपना घर मानकर हर छोटी से छोटी खुशी भी मनाती है तो क्यूं बहू के मायके का दुख छोटा माना जाता है??
क्या बहू का दुख सिर्फ उसी के हिस्से का है!!