इण्डियन फ़िल्म्स 2.11
इण्डियन फ़िल्म्स 2.11
फिर परनानी नताशा और फ़ाइनल...
ये वही सन् छियासी है, मेरी ज़िंदगी का वो ही महत्वपूर्ण फुटबॉल वर्ल्ड चैम्पियनशिप का मैच, जब मरादोना ने हाथ से ‘गोल’ बनाया था और सारे रेफ़रीज़ ने उसे ये स्वीकार करके माफ़ कर दिया था, कि ये ख़ुदा का हाथ है; ये वो ही चैम्पियनशिप थी, जिसमें प्लेटिनी ने सेमीफ़ाइनल में निर्णायक पेनल्टी ठोंक दी थी, - वो ही, वो ही। ज़ाहिर है, कि मैं सारे मैचेज़ लगातार देखता हूँ, पूरा एक महीना टीवी से दूर नहीं हटता हूँ, कमरे वाले अपने मैचेज़ को भी आगे सरका देता हूँ, और जब फ़ाइनल होगा तो मैं, ज़ाहिर है, हरा स्क्रीन बन जाऊँगा और स्टेडियम में मौजूद फ़ैन्स के साथ चिल्लाऊँगा!
और, नानी, ये रही तुम्हारे लिए, बिल्कुल सेंट जॉर्ज-डे की फ़ीस्ट!
टीवी चालू करता हूँ, शान से, बिल्कुल नानू की तरह, कुर्सी में बैठता हूँ, उसे टी वी के पास सरकाता हूँ, इस तरह कि कुर्सी और चमचमाते हरे स्क्रीन के बीच, जिस पर छोटे-छोटे इन्सान भाग रहे हैं, मुश्किल से डेढ़ मीटर का फ़ासला हो। और क्या? कमेन्टेटर बोलना शुरू करता है, और कमरे में चुपचाप मेरी परनानी नताशा घुसती है।
आज उसका मूड अच्छा नहीं है – ये इस बात से पता चल रहा है, कि उसका हमेशा सलीके से बांधा हुआ रूमाल आज लापरवाही से खिसक गया है, और होंठ एक ख़तरनाक त्रिकोण बना रहे हैं। फिर वो कुछ सुड़सुड़ा भी रही है; मतलब – मुसीबत का इंतज़ार करो।
“अरे,” नताशा कहती है, “चलो, टीवी को आराम करने दो”!
समझ रहा हूँ, कि इस “टीवी को आराम करने दो” का मतलब मेरे लिए क्या होता है! मैं पूरे महीने भर से फ़ाइनल का इंतज़ार कर रहा था, और सुबह हो गई है, सो तो नहीं सकते, और ऐसे मौके के लिए तो मैं रात को भी नहीं सोता, - और अचानक “चलो ।!” भला बताइए!
“मगर ये तो,” मैं तो इतना तैश में आ गया कि मेरी सारी नसें तड़तड़ाने लगीं, “फ़ाइनल है! मरादोना खेलेगा, तिगाना, प्लातिनी, रोझ्तो ।”
जितनों को मैं जानता था, उन सबके नाम मैंने गिनवा दिए, मगर नताशा ने दृढ़ता से टीवी बंद कर दिया, और आगे ऐसा हुआ: वो – स्टैण्ड के पास खड़ी होकर उस नासपीटे बक्से को बचा रही है, और मैं उसे धकेलता हूँ और बक्से को फिर चालू कर देता हूँ। ऐसा कई बार होता है: मैं चालू करता हूँ, वो बंद करती है – और फिर से स्टैण्ड के पास। हाथापाई शुरू हो गई। ऊपर से, नताशा को तो, जैसे मज़ा आ रहा था, और मैं वाकई में अपना आपा खो रहा था। अब सिर्फ इसलिए नहीं, कि फ़ाइनल था, बल्कि इसलिए कि मुझे ऐसा महसूस हो रहा है, कि मुझे टीवी देखने से रोकना इतना आसान है। नताशा जितनी ज़्यादा तैश में आ रही थी, उतना ही मैं भी गरम हो रहा था, और मेरे एक काफ़ी तेज़ धक्के के कारण परनानी धीरे-धीरे दिवान पर गिरने लगी, उसकी आँख़ें धीरे-धीरे गोल-गोल घूमने लगीं, और वो चित हो गई, उसका दायाँ हाथ बेजान होकर एक ओर को लटक गया। बस, सत्यानास । फ़ाइनल के बारे में मैं, वाकई में, भूल गया, नताशा को कृत्रिम रूप से साँस देने की कोशिश करता हूँ, जैसा मुझे व्लादिक ने सिखाया था, मगर इसका भी कोई फ़ायदा नहीं हो रहा है ।
क्या पुलिस में फोन कर दूँ, कि मैंने अपनी परनानी को मार डाला है?
जिस्म के भीतर – दिल की जगह पर “ठण्डक” छा गई, और इस “ठण्डक” के कारण मेरे दाँत भी किटकिटाने लगते हैं; और तभी दरवाज़े के पीछे से पैकेट्स की सरसराहट सुनाई देने लगती है – ये तोन्या नानी आई है, डिपार्टमेन्टल स्टोर से, उससे मैं क्या कहूँगा?!
मगर मेरे कुछ कहने से पहले ही तोनेच्का बेहद ख़ुश-ख़ुश अंदर आती है और कहती है, कि उसने कण्डेन्स्ड मिल्क के पूरे तीन डिब्बे खरीदे हैं और वो उन्हें औटाकर पेढ़ा बनाएगी, जो मुझे सिर्फ रबड़ी के मुकाबले में ज़्यादा पसंद है।
“सिर्फ ये बात समझ में नहीं आ रही है, कि सब एक साथ औटा दूँ, या पहले दो औटाकर बाद में तीसरा औटाऊँ?”
जैसे ही मैं मुँह खोलता हूँ, जिससे कि अपराध की भावना से कह सकूँ, कि दूध के लिए थैन्क्यू, मगर मैंने गलती से नताशेन्का को मार डाला है, नताशेन्का, अपनी पोज़ बदले बिना, ज़ोर से, पूरे दिल से, रुक-रुक कर कहती है:
“दो ही - उबाल कर औटा, तीन से – ज़्यादा ही चिपचिपा हो जाएगा!”
ज़िंदा है! “ठण्डक” पिघलने लगती है, दाँत अब नहीं किटकिटा रहे हैं; फाइनल की याद आती है, और पेढ़े की कल्पना ने तो मेरी खुशी के प्याले को इतना लबालब भर दिया, कि पूछो मत। नताशा, बुदबुदाते हुए, कि प्योत्र इवानोविच के पास जा रही है (वो टॉयलेट को प्योत्र इवानोविच कहती है), कमरे से निकल गई, जैसे कुछ हुआ ही न हो ।(इतना बर्दाश्त इसलिए करना था, कि सिर्फ मुझे डरा सके!)
मैंने फ़ैसला कर लिया कि नताशा वाली बात किसी को भी नहीं बताऊँगा। मैं और तोन्या नानी फ़ाइनल का अंत देखते हैं, नानी पेनाल्टी को “पेनाल्चिक” कहती है और, चाहे कितना ही क्यों न समझाऊँ, कि ऐसा कोई शब्द है ही नहीं, बल्कि सिर्फ “पेनाल्टी” है, फिर भी वह नहीं समझती, “पेनाल्चिक किसलिए”।
शाम को चाय पीते समय, और बातों के अलावा मैं नताशा से हुए झगड़े के बारे में बताता हूँ। नानू क्वैक-क्वैक करते हुए कहते हैं, कि “बूढ़ी औरत कैसे छोकरे को पागल बना सकती है”, और फिर वो कि ‘न्यूज़’ आने तक (मतलब, प्रोग्राम ‘व्रेम्या' आने तक वह 'फोर्माश्क' (खीमा-अनु।) (एक पकवान, जो नानू बना सकते हैं, और जिसे बनाना उन्हें पसंद है), बना लेंगे, इसलिए हमें किचन से बाहर निकल जाना चाहिए।
मगर मैं नहीं जाता, बल्कि नानू से कहता हूँ, कि न्यूज़ के बाद हम ताश खेलेंगे। और अगर उनका जी चाहे, तो वो मुझे ‘प्रेफ़ेरान्स’ खेलना सिखा सकते हैं। ये होगी बढ़िया बात! वर्ना तो जब हमारे नाना-दादा खेलना शुरू करते हैं, साथ में व्लादिक के पापा और व्लादिक भी, तो मैं समझ ही नहीं पाता कि क्या करूँ। मगर अब, उम्मीद है, कि जब मैं सीख जाऊँगा तो आसानी से खेल सकूँगा।