Unlock solutions to your love life challenges, from choosing the right partner to navigating deception and loneliness, with the book "Lust Love & Liberation ". Click here to get your copy!
Unlock solutions to your love life challenges, from choosing the right partner to navigating deception and loneliness, with the book "Lust Love & Liberation ". Click here to get your copy!

मल्लिका

मल्लिका

8 mins
738


समय चला जा रहा था ट्रैन का छूटने का वक्त भी हो गया था ...चेहरों की भीड़ मेंं से एक जाना पहचाना चेहरा कहीँ नज़र नहीं आ रहा था ..लोग भाग कर सीटों को हथिया रहे थे ... जैसे जीवन के दौड़ में अपनी अपनी ख्वाहिशों को मुट्ठी में लेते हैं ...ऐसा भी होता है कभी-कभी हमारी ख्वाहिशों पर किसी और का अधिकार बन जाता है, ठीक उसी तरह जैसे रिज़र्वड सीट पर कोई गैर आ कर जबरन बैठ जाए तब आपका सफ़र बड़ा ही मुश्किल से कटता है।

खैर ..यही तो जीना है कभी गिर कर कभी संभल कर ..कभी पा कर और कभी ना चाहते हुए भी खो कर। यहाँ तो खोना ही खोना लिखा था हथेलियों पर और माथे पर शिकन। बेचैनी बढ़ रही थी ..प्लेटफार्म पर बार-बार ये उद्घोषणा हो रही थी कि हावड़ा-देल्ही एक्सप्रेस कुछ ही समय में छूटने वाली है। प्लेटफार्म पर खड़ी सारी लड़कियाँ संबित को मल्लिका की तरह नज़र आ रही थीं। किसी तरह सारे सामान ढो कर संबित चढ़ गया था ट्रेन में और खिड़की वाली सीट उसे मिल गई थी।

एक लाल रूमाल लिये खिड़की से हाथ निकाल कर बैठा रहा संबित ताकि मल्लिका को कोई परेशानी ना हो उसे ढूंढ़ने में। ट्रेन की आखरी सीटी बज गई ...पर मल्लिका.... संबित भाग कर गया गेट के पास पर .....धीरे धीरे ट्रेन के पहिए बढ़ने लगे ....संबित का मन कह रहा था उतर जाए और ... मल्लिका के लिये इंतजार करे उसी प्लेटफार्म पर उम्र भर पर .... जिंदगी रुकती कहाँ हैं ट्रेन के पहियों सी बड़ी रफ्तार से चली जाती है। किसी का इंतजार नहीं करती ...रूमाल हाथ से उड़ गया था जिसमे लिखा था सफ़ेद और हरे धागों से मैं तुम्हारी मल्लिका ..... अनजाने मेंं संबित की आँखों से गर्म आँसू बह गयें, होंठ तक ....उतर नहीं पाया ट्रेन से न इंतजार कर पाया, ना रोक पाया खुद को हावड़ा छोड़ते हुए ...ट्रेन की रफ़्तार अब उसकी यादों की रफ्तार से भी आगे बढ़ चुकी थी ...

संबित दो साल पहले ही आया था कोलकता नई नई नौकरी लगी थी पोस्ट ऑफिस मेंं ।वह एक ख़ूबसूरत सांवला सा और बहुत ही साधारण सा नौजवान था। पहली बार वो देल्ही छोड़ कर आया था एक नई जगह नौकरी मिलने पर। किसी तरह एक रात होटल में गुजार कर सुबह जॉइन किया था कोलकता के रेड लाइट एरिया से थोड़ी दूर के पोस्ट ऑफिस में। उसे कोई जानकारी नहीं थी इस जगह के बारे में। पहला दिन ऑफिस मेंं बड़े बाबू (जो के पचास साल के होंगे) , ने कहा बेटा तुम्हारी उम्र तो अभी खेलने-कूदने की है ...कहाँ नौकरी मेंं लग गये , भई ! फिर भी तुम्हारे लिये यहाँ सब इंतजाम है ...दिन यहाँ और रात कहाँ कहाँ कटेगी देखना ....तुम्हारे तो मजे ही मजे है ...और एक रहस्यमयी हँसी से सारा पोस्ट ऑफिस फट पड़ा था। संबित को बड़ा अजीब लगा। वो ऑफिस के बाद चुपचाच होटल चला आया। रात भर उसको नींद नहीं आई। बड़े बाबू के ठहाकों ने उसे उस रात सोने नहीं दिया ....सुबह सोच लिया एक छोटा सा कमरा किराये पर कहीं ढूँढ़ लेगा और बस जाएगा वहीं। ये सब सोचते सोचते ऑफिस पहुँच गया था।

पियोन के हाथों एक चाय मंगवा कर पी ली और काम पर ध्यान देने लगा ..अचानक गुलाब की इत्र से सारा ऑफिस महक उठा और संबित ने जब उस महक से अचम्भित हो कर सिर उठा कर सामने देखा तो उसकी आँखें खुली खुली की खुली रह गई ...तभी बड़े बाबू जगा दिये ये कह कर छोटे बाबू लग जाओ काम पर ...तो संबित थोड़ा सहज अनुभव किया ....उसने कहा मैं मल्लिका हूँ ..मुझे एक पास बुक खोलनी है। जब वो कह रही थी संबित को बस उसके गुलाबी होंठ दिख रहे थे ...वो सुन नहीं पाया .... मल्लिका ने फ़िर से अपनी बात दोहराई।

संबित होश में आया और कहा कि आप अपना अड्रेस बताइए ...और अपने माता पिता का नाम या पति हो तो उनका नाम बताए। मल्लिका ने कहा इनमें से मेरा कोई नहीं है ..मेरा अड्रेस सोनागाछी रेड लाइट एरिया है और मैं एक कालगर्ल हूँ। संबित को कुछ समझ मेंं नहीं आया पर उसने मल्लिका से बड़े ही सम्मान से बात की और पास बुक खोल दी। मल्लिका को पहली बार महसूस हुआ कि कोई आदमी उससे सम्मान के साथ बात कर रहा है।

मल्लिका, संबित को नमस्कार कहा और चली गई पर अपनी खुशबू अमानत के तौर पर छोड़ गई।

पास बुक लेने मल्लिका आ नहीं पाई, दो दिन गुज़र गये। शनिवार को आधे दिन कि छुट्टी हुई तो संबित ने सोचा क्यूँ ना मल्लिका को उसके पते पर पास बुक पहुँचा आऊँ। फ़िर उसके क़दम उठ पड़े सोनागाछी के ओर। उर एरिया में घुसते ही उसे बड़ा अजीब सा लगा। शराबियों की भीड़ ...अधनंगी लड़कियाँ..... संबित का दिमाग सुन्न हो गया।

उसने सोचा कहाँ आ गया है वो। एक पान की दुकान में मल्लिका के बारे में पूछा तो उस आदमी ने उसे मल्लिका के पास पहुँचा दिया। एक गंदी सी गली में अंधेरे कोने में एक छोटा सा कमरा था उसका घर। संबित ने दस्तक दी दरवाजे पर तो अंदर से जानी पहचानी आवाज आई ' आ जाओ अंदर ' .... और संबित को देख कर मल्लिका चौंक गई ....संबित ने कहा आप पास बुक लेने नहीं आई तो मैं देने चला आया। कोई बात नहीं सर ..आप बैठिये मैं चाय लाती हूँ ..' संबित ' न ' कहते हुए खड़ा हो गया।

मल्लिका ने कहा संबित जी ...पहली बार किसी पुरुष से सम्मान मिल रहा देख कर अच्छा लग रहा है ....वैसे हम वेश्याओं को घृणा की नजर से देखता है ये समाज। वैसे यही समाज की देन हैं हम लोग। पुरुष जाति ने अपने घमंड और वासनाओं की पूर्ति के लिये हमें यह स्थान दिया है। अपनी प्यास तो बुझा लेते हैं पर हमें बंजर छोड़ जाते हैं। आपसे मिलकर ऐसा लगा आज भी एहसास जिंदा है एक पुरुष की खाल में..और एक औरत को जायज और नाजायज रिश्तों में बाँट दिया गया है। संबित बाबू ...आपसे मिलकर अच्छा लगा ...पहली बार कोई आदमी इस चौखट से बेदाग जा रहा है। माँ-बाप बचपन में ही बेच दी थी मुझे ..और यहाँ ला कर खड़ा कर दिया किस्मत ने मुझे। एक बार इस दलदल मेंं आने के बाद फिर कभी नहीं बाहर निकल सकती कोई लड़की। ये पैसे मैं जोड़ रही हूँ अपनी बुढ़ापे के लिये जब ये शरीर किसी के काम नहीं आएगा । मैंने आत्महत्या करने की बजाय ... आत्मसम्मान की इच्छा की थी ....ऐसा लगा था कोई मुझे यहाँ से छुड़ा ले जाएगा ....पर आज पंद्रह साल हो गयें ...कोई फ़रिश्ता नहीं आया .... । घुट घुट कर जीते हुए अब सब कुछ साधारण सा लगने लगा है। ...संबित उठ कर खड़ा हो गया जाने के लिये। मल्लिका फूट फूट कर रो रही थी ....संबित ने खामोशी को तोड़ते हुए कहा मैं चलता हूँ।

होटल में पहुँच कर संबित सोचता रहा रात भर मल्लिका के बारे में। वो मासूम लड़की देह व्यापर

करती होगी उसे विश्वास नहीं हो रहा था ....। रात को अपने चाँद के साथ धीरे धीरे ढलते हुए देख कर भोर मुस्कुरा रही थी। पहली किरण ने सहला कर संबित को उठा दिया था। संबित को पास में ही एक कमरा मिल गया था तो वो होटल से चेक आउट कर लिया।

शाम को हिम्मत जुटा कर मल्लिका से मिलने गया। मल्लिका को ताज्जुब हुआ कि एक इतना अच्छा इंसान यहाँ क्यूँ आया है ? संबित ने कहा क्या तुम मेरे साथ कुछ समय के लिये बाहर आओगी ? मल्लिका किसी को फोन पर पूछ कर इजाज़त ली और संबित के साथ चल पड़ी। संबित, मल्लिका को अपने घर ले आया। दोनों एक दूसरे के बारे में जानने लगें। संबित ने वादा किया कि एक दिन उसे वो यहाँ से दूर ले जाएगा। मल्लिका रो पड़ती है और वापस चली जाती है।

संबित को आदत सी पड़ गई थी मल्लिका की। रोज़ दोनों मिलते थे। बड़े बाबू ने चिढ़ाना छोड़ दिया जब उन्हें ये पता लगा कि संबित, मल्लिका से प्यार करने लगा है और उसे अपनी जीवन संगिनी बनाएगा।

मल्लिका, संबित को अपने हाथों कढ़ाई किया गया एक लाल रूमाल देती है जिसमें लिखा था मैं हूँ तुम्हारी मल्लिका ...... । संबित बहुत खुश हो जाता है ..तय होता है कि वो दोनों कोलकता छोड़ कर चले जाएँगे और अपनी नई दुनिया बसाएँगे।

संबित का तबादला हो जाता है दिल्ली। मल्लिका हमेशा संबित को समझाती थी कि एक वेश्या कभी पत्नी नहीं बन सकती या ये जीवन छोड़ सकती है। संबित जिद पर अड़ जाता है और मल्लिका को दलाल अकीब छोड़ता नहीं। संबित को मार मार कर उसे भगा देता है।

मल्लिका जानती थी संबित स्टेशन पर इंतजार करेगा ....ये भी जानती थी ...वो जी नहीं पाएगी अब संबित के बिना। शरीर तो था नहीं एक कोरा मन संबित के लिये रोता जा रहा था।

संबित चला आया था मन मेंं ये विश्वास लिये कि मल्लिका जरुर आएंगी .....।

रूमाल प्लेटफार्म पर उड़ा जा रहा था हवा में ...संबित देख रहा था दूर बहुत दूर तक रूमाल को उड़ते हुए और साथ में एक काया को उस रूमाल को पकड़ने की कोशिश में भागते हुए .....


Rate this content
Log in

Similar hindi story from Romance