सुवर्णरेखा और मौली

सुवर्णरेखा और मौली

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पावन मिट्टी को छूती बही जा रही थी सुवर्ण रेखा नदी । कलकल करती इसकी तरंगे प्रकृति की शोभा और बढ़ा देती थी । पूर्व दिशा के आकाश को लोहित करता बाल सूर्य जब उभर आता था धीरे धीरे तब मंदिर की घंटी बज उठती थी ..किनारे किनारे बैंगनी फूलों पर ओस की बूंदें चमक जाती थीं मानो जैसे कोई मोती बिखेर दिये हो । नन्हीं किरणों को छू कर मखमली तितलियां उड़ जाती थी शीतल बयार मेंं । पंक्षियों की चहचहाहट से जीवन पूर्ण हो उठता था और मौली अपनी टोकरी लेकर चल पड़ती थी खेत की ओर जिसे साहूकार ने उसे मात्र 500 रुपए दे कर हड़प ली थी ...अपनी ही ज़मीन पर मजदूरी करना रोज़ के पाँच रुपए पर ...मौली थकी हारी मानसिक स्तर पर मरती रहती थी प्रतिक्षण ।

मात्र 20 साल उम्र की थी मौली जब वेणु चल बसा गोद मेंं 2साल की मासूम रूमी को छोड़कर । वेणु के होते हुए वो घूंघट से बाहर नहीं निकलती थी परंतु जबसे वो गया है मौली को रूमी की देखभाल के लिये बाहर कदम रखना पडे़ थे ।उसने कुछ पैसे साहूकार से उधार लेकर वेणु का क्रियाकर्म किया था । बस उस उधार को समय पर न चुका पाने का नतीजा ये था कि साहूकार ने ज़मीन हड़प ली ।

जब भी सुबह होती है मौली को सुवर्ण रेखा के पानी में अपना चेहरा दमकता नज़र आता था वेणु को याद करके । नदी के शीतल जल से अपना चेहरा धो लेती थी और रूमी को भी साथ ले जाती थी । खेत के किनारे एक बड़ा से पीपल के पेड़ के नीचे उसे कुछ टूटे फूटे खिलौने दे कर बिठा देती थी और खुद काम मेंं लग जाती थी । गो धूलि बेला मेंं रूमी को साथ ले कर लौटती थी घर वही टूटी - फूटी झोपड़ी में जिसे वो घर कहती थी ।

रूमी मांड पी कर सो जाती थी । और मौली फूटे छत की छेद से देखती रहती थी एक टुकड़ा आसमां मेंं झिलमिलाते तारों को । सोचती रहती कैसे अपनी ज़मीन छुड़वाऊँ साहूकार से । रूमी बड़ी हो रही थी और पैसे पर सूद बढ़ता ही जा रहा था । साहूकार की एक मांग थी मौली के ज़िस्म से कर्ज चुकता कर दे वरना यूँ ही मौली धूप और बारिश से जूझ कर मजदूरी करे खाली पेट । मौली कभी छत को कभी रूमी को देखती थी ...तीन साल की रूमी ..उसके जीवन का अंश जो मिट्टी पर लेटी हुई थी उस मासूम को मौली के जीवन के इस पहलू के बारे मेंं क्या पता ।

साहूकार की पत्नी को मरे हुए पाँच छह साल हो चुके थे और उसकी भी एक 8साल की बेटी थी ।

लोग कहते थे साहूकार उसकी पत्नी के मरने के बाद हैवान बन गया था । रोज़ शराब मेंं डूब कर रहता था और सूद के लिये बेरहम हो जाता था वरना पहले वो बड़ा ही शरीफ था । जो भी हो , मौली के लिये तो यही साहूकार था जो उसे शांति से रहने नहीं देता था ।

यही सिलसिला चलता था रोज़ रात को जब नशे मेंं धुत साहूकार दरवाजा ढकेल कर घुस आता था और मौली के साथ जबरदस्ती करने की कोशिश करता था । किसी तरह धक्का मार के मौली निकाल देती थी उसे घर से बाहर और अपनी अस्मिता पर आँच आने नहीं देती थी । वो चिल्ला चिल्ला के गंदी गालियाँ बरसा देता था ये कह कर कि तुझे कभी तेरी ज़मीन नहीं मिलेगी । रूमी की नींद टूट जाती थी इस शोर शराबे से । डर के मारे लिपट जाती थी अपनी माँ के सीने से । कह नहीं सकती थी कुछ भी मौली बस रोती रहती थी रात भर और आँखें सुवर्ण रेखा बन जाती थी । आंसुओं से भरी पलकें बंद हो जाती थी रूमी को गोद मेंं लिये छत को निहारते हुए ।

सुबह फ़िर वही जीवन साधारण हो जाता था और अपने कर्मभूमि की ओर चल पड़ता था सारी बिखरी आशाओं को समेट कर पूरे जोश के साथ । नदी के किनारे किनारे चलती मौली अचानक पानी मेंं सुबह की किरणों मेंं अपना चमकता चेहरा देखा और थोड़ी देर बैठ गई ...... अपनी सुडौल तन को निहारती रही ...एक ठंडी हवा के झोंके उसके अंतस को छू कर बिजली गिरा कर चले गये । आधी सरकी साड़ी मेंं खुद को देख कर वो वेणु को खोजने लगी मन ही मन । कुछ देर आँखें बंद करके पड़ी रही गीले घास पर । रूमी की आवाज ने अचानक जगा दी उसे ...और खुदको सम्हाले उठ खड़ी हुई ...। रूमी को डरती हुई भागी आ रही थी और रो रही थी । कुछ समझ नहीं पाई मौली और उसको गोद मेंं उठाए चल पड़ी खेत की ओर । आज उसका मन काम मेंं लग नहीं रहा था । साहूकार की लोलुपता से डर लगता था अपने लिये भी और रूमी के लिये भी । उसकी सुरक्षा के लिये बेचैन हो उठी । अकेली औरत कबतक लड़ पाएगी भला । पैसा घर न रिश्तेदार कोई नहीं था उसके जीवन मेंं बस रूमी के सिवाय । लौटते समय नदी के किनारे बैठी बहुत रोई ... सुवर्ण रेखा साक्षी है उसके हर हाल की । अपनी बीती सुनाती थी मन ही मन सुवर्णरेखा को । पता नहीं क्यूँ आज नदी मेंं तरंगे उठ रहीं हैं । अंधेरा होने से पहले घर पहुंचना था उसे तो वो मानो रूमी को गोद मेंं उठाए भाग रही थी । घर पंहुच कर रूमी को सुबह का चावल खिला कर सुला दी । रोज़ की तरह आज भी वो टूटी छत से तारों को देख रही थी ...रूमी गहरी नींद मेंं थी । मौली ने बक्से से वेणु की दी हुई गुलाबी साड़ी निकाल कर पहन ली और माथे पर कुंकुम लगा ली । शांत मन मेंं कोई चंचल हिरणी दौड़ रही थी । वन मयूर मन उपवन मेंं काली बदली देख पँख फ़ैलाए नाच रहा था । उसके पैरों मेंं मौली की पीड़ाओं के घुंघरू बज रहे थे और सारे आंसुओं के बूंदे खनकने लगी थी उसकी धुन पर ...मौली के अंदर की छटपटाहट और चांद की पतली सी किरण जो छत के छेद से गिर रही थी मौली को बेकाबू करने लगे थे । आज साहूकार बिन पिए आया था मौली को ये कहने कि उसे उसकी ज़मीन मिल जाएगी अगर मौली उसकी शर्त मान ले तो । मौली दरवाजे पर दस्तक सुनी तो होश मेंं आ गई । माथे से कुंकुम साफ करके सोचा आज दस्तक कैसी ! ! ! आज साहूकार दरवाजा ढकेल कर नहीं आया । सहमी हुई मौली दरवाजा खुल कर अवाक रह गई । ये यही आदमी है जो आज सभ्य नज़र आ रहा है ? साहूकार ने मौली से नज़र झुका कर माफ़ी मांगी और कहा तुम्हारी ज़मीन वापस कर रहा हूँ तुम्हे ...ये रहे तुम्हारी जमीन के कागज़ात ...तुम्हारे जगह कोई और होती तो कब की अपनी मर्यादा लांघ चुकी होती । आज मुझे पश्चाताप हुआ जब रूमी को दो बदमाश लड़कों को छेड़ते हुए देखा और खुद को उन लड़कों के जगह रख कर बहुत शर्मिंदा महसूस किया । तुम्हे नहीं पर रूमी को बाप की जरूरत है ..सुरक्षा की आवश्यकता है ...रूमी आज सो रही थी बड़े ही सुकून से ....मौली का साया कब सरक गया था एक और साये पर और लिपट कर शांत हो चुका था ... उस पतली सी रोशनी को ओढ़ते हुए ...। हाथों मेंं जकड़े सारे कागजों पर पकड़ ढ़ीली पड़ गयी थी ....सुवर्ण रेखा की लहरें मौली को भिगो कर वापस लौट रहीं थीं शायद......


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