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एक्वेरियम में मछलियाँ

एक्वेरियम में मछलियाँ

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कल दोपहर की ही बात थी। तान्या दरवाजे को ठेलती हुई हवा के झोंके के मानिंद घर में घुसी थी। बस्ता सोफे पर फेंकते हुए पैरों से ही जूते दाएं और बाएं कोनों की ओर उछाल दिए। वह दौड़ते हुए अपनी मम्मी के गले में दोनों हाथ डाले झूलने लगी। फिर मुड़ी और तेज प्रकाश बाबू से बोली – पापा, आँखें बंद कीजिए, मुझे आपको कुछ दिखाना है। वे मुस्कराने लगे। बिल्कुल नहीं बदली यह लड़की। 12वीं में पढ़ती है पर वही बचपना। जब भी कोई अंक सूची या प्रमाण-पत्र दिखाना होता, वह ऐसा ही करती थी बचपन से ही। कभी कुछ नया बनाती तो भी इसी तरह। तेज प्रकाश बाबू आँखें बंद किए यह सब सोच ही रहे थे कि अपने हाथों में उन्होंने कार्ड सा कुछ महसूस किया।

सचमुच कोई कार्ड ही था। गुलाबी रंग के लिफ़ाफ़े में। वे विस्मय से जल्दी – जल्दी लिफाफा खोलने लगे तो तान्या मुस्कुराते हुए उन्हें देखती रही। इसी बीच उसकी मम्मी भी वहां आ गई थी। किसकी शादी का कार्ड है - उन्होंने सहज पूछा था। तान्या भड़क गई थी – क्या मम्मी आपको सारे कार्ड शादियों के ही लगते हैं। क्या शादियों के अलावा और कोई प्रोग्राम नहीं होते कहीं। हाँ – हाँ, होते हैं.. फिर बता ना किस प्रोग्राम का है।

तान्या कुछ बोलती इससे पहले ही वे बोले – अरे वाह, यह तो बहुत अच्छी बात है। तुम्हारे स्कूल में विज्ञान प्रदर्शनी है और हमें भी देखने बुलाया है। यह तो बड़ी अच्छी बात है।

..और इस साइंस एक्जीबिशन में मेरा भी एक मॉडल है। मैंने अपनी सहेली के साथ मिलकर फायर अलार्म बनाया है। कहीं आग लगते ही यह सायरन बजाएगा, इससे आग पर जल्दी काबू पाने में मदद मिलेगी। उसके हाथ भी समझाने के साथ यंत्रवत चल रहे थे। पापा इस बार जरूर आना है आपको मम्मी को लेकर। कोई बहानेबाजी नहीं चलेगी, हाँ – तान्या ने आखरी वाक्य करीब – करीब चेतावनी के स्वर में कहा था।

तेजप्रकाश बाबू के चेहरे पर ख़ुशी के साथ गर्व के भाव छलक आये थे। वे चहकते हुए बोले – अरे बिटिया, इतनी ख़ुशी की बात है। हम दोनों जरूर आयेंगे। मैं आज ही दफ्तर से इसके लिए आधे दिन की छुट्टी का आवेदन कर देता हूँ। यह तो स्कूल वालों ने मेरी पसंद का काम किया है। मैं तो हमेशा से ही कहता रहा हूँ कि बच्चों को सिर्फ किताबों तक ही सीमित क्यों रखें। उन्हें रट्टू तोता नहीं, पाठ्यक्रम से बाहर का भी ज्ञान अर्जित करने के लिए प्रेरित करना चाहिए। इससे उनमें कल्पना शक्ति, मौलिकता, सहज अभिव्यक्ति और आत्मविश्वास बढ़ता है। शिक्षा समग्र विकास है एकतरफा नहीं। बौद्धिक, सामाजिक, तार्किक, वैज्ञानिक, व्यावहारिक और शारीरिक सभी तरह का विकास...

बस – बस पापा और प्रवचन नहीं। मुझे भूख लगी है। मैं तो चली किचन में – इतना कहते हुए तान्या सच में किचन की ओर मुड़ गई थी।

वे मन मसोसकर रह गए। आजकल के बच्चे किसी की कुछ सुनना ही नहीं चाहते। हम तो अच्छी बातें सुनने के लिए चौराहे पर भी रुक जाया करते थे।

तान्या तो चली गई थी, पर वे अपने अंदर कई हिलोरें महसूस कर रहे थे। उन्हें अपने निर्णय पर आश्वस्ति हुई कि पत्नी के विरोध के बाद भी उन्होंने तान्या को शहर के सबसे महंगे स्कूल में भर्ती कराया था। थोड़ा पैसा कम बचे तो कम सही, पर समय पर बच्चों को अच्छी शिक्षा मिल जाए तो समझो भर पाये।           

गावतकिये से सिर टिकाए वे खोने लगे थे कहीं। उनके दिनों में गाँव के सरकारी स्कूलों में कहाँ होती थी ऐसी गतिविधियाँ। तब के दिनों में तो पढ़ाई हो जाए, वही बहुत होता था। कई विषयों के तो शिक्षक ही नहीं होते थे। खुद ही पढ़ना होता था अपने बूते। न कोई प्रोजेक्ट, न प्रतियोगिताएँ, न लाइब्रेरी, न लैब यहाँ तक कि टिफिन–बोतल तक नहीं। बैठने का टाट भी घर से ही ले जाना पड़ता था साथ में। कितना मन होता था उनका इन दिनों इन सबके लिए। वे भी तो विज्ञान ही पढ़ना चाहते थे पर विज्ञान वहां था ही नहीं। कितना कुछ है विज्ञान में करने को।  आठवीं तक जो कुछ पढ़ा था, वही उन्हें ललचाता रहता।

पर हाँ, जुगाड़... इस शब्द पर सहसा उन्हें हंसी आ गई। यही तो कहते थे वे सब। क्या दिन थे वे... क्या क्या बना डालते थे जुगाड़ से उन दिनों। कोई कुछ बनाता तो कोई कुछ और गाँव में मम्मू कबाड़ी और रतन टांटली हमारे आदर्श हुआ करते थे। दोनों पढ़े – लिखे तो बहुत कम ही थे पर उनका अभियांत्रिकी कौशल कमाल का था। उनके पास हर काम का कोई तोड़ जरूर होता था और उनकी छोटी सी दुकानें हमेशा फालतू से दिखने वाले कबाड़ से भरी रहा करती थी। बच्चे और कुछ लोग अक्सर शाम को उनकी दुकान पर खड़े हो जाया करते। उन्हें काम करते हुए देखते रहते। वे बार – बार कोशिश करते, फेल भी होते और फिर नए सिरे से शुरू करते। जब काम पूरा हो जाता तो उनके चेहरे पर एक मुस्कान दौड़ जाती। पर यह मुस्कान ज्यादा देर नहीं टिकती और वे भिड़ जाते किसी दूसरी जुगाड़ में।

बच्चे भी तरह – तरह की चीज बनाते। खिलौने भी और घर के छोटे – मोटे कामों के लिए भी। खेतों में तो ज्यादातर काम जुगाड़ से ही चलता। तब चीजें आज की तरह जिन्दगी में अनिवार्य रूप से शामिल नहीं हुई थी। उनके बिना भी आदमी खुश था। मिल जाती तो ठीक, नहीं तो काम चल ही जाता।

अब तेज प्रकाश बाबू शहर के आखरी इलाके की एक कालोनी में रहते हैं। बीस सालों की नौकरी से बचाए कुछ पैसे और बैंक से लोन लेकर बनाया था यह छोटा सा मकान। पत्नी, बच्चे और वे, बस यही छोटी सी गृहस्थी है उनकी। बैंक में छोटी सी नौकरी से शुरुआत की थी और अब दो प्रमोशन लेने के बाद असिस्टेंट ब्रांच मैनेजर तक पहुंच सके हैं। उन्हें कोई मलाल भी नहीं। वे अपने में सुखी रहते और संतोष करते। बहुत छोटे – छोटे सपने हैं उनके। बेटी अच्छे से पढ़ – लिख जाए और अपनी जिंदगी में खुश रहे। बाकी बचे वे दोनों तो पेंशन से गुजारा हो ही जाएगा।

और फिर गाँव में तो है ही सब कुछ। इतना बड़ा घर–कुनबा। कितने साल हो गए उन्हें गाँव छोड़े हुए, पर अब भी न जाने क्यों? गाँव को याद करते हैं तो जैसे अंदर कुछ हरहराने सा लगता है। 

दूसरे दिन वे सुबह से ही बड़े खुश थे। स्कूल के मेनगेट पर ही वाचमैन ने उनको झुककर सलाम किया तो बदले में वे भी उसकी ओर मुस्करा दिए। गाड़ी पार्क करके लौटे और उत्साह से अंदर बढ़ चले।

गेट से हाल तक लाल कालीन बिछाया गया था। उनके जूते कालीन में धंस रहे थे। हर तरफ शालीन सी भव्यता। साफ़ – सुथरा और करीने से सजा हुआ। हर दो – चार कदम पर शिक्षक और विद्यार्थी खड़े थे, जो अभिवादन करते हुए पैरेंट्स को हाल की तरफ जाने का इशारा कर रहे थे। ज्यादातर खामोश या बहुत धीमे से बात करते हुए। उनकी आँखों में सम्मान का भाव और चेहरे पर मुस्कुराहट चस्पा थी। वे इससे पहले भी बेटी के स्कूल आते रहे हैं, लेकिन इस बार उन्हें कुछ अजीब सा लगा पर वे आगे बढ़ते गए।

हाल के दरवाजे पर उन्हें शिफ्ट इंचार्ज मिले। उन्होंने उनसे अदब व गर्मजोशी से हाथ मिलाया और कहा – सर, वेलकम इन आवर प्रेमायसिस। इट्स आवर गुडलक। यू लुक साइंस एक्जीबिशन एंड प्लीज़ नोट डाउन योर प्रेसियस कमेंट सर। वे बहुत धीमे बोल रहे थे। चाशनी की तरह मीठी आवाज़ में।

अंदर अलग – अलग टेबलों पर बच्चों के मॉडल रखे थे। टेबलों के पीछे सावधान की मुद्रा में यूनिफॉर्म में चहकते से विद्यार्थी खड़े थे। जैसे हो कोई उनकी टेबल तक पहुंचता, वे किसी कुशल बनिये की तरह लपकते। फिर यंत्रवत हैल्लो.. गुड मॉर्निंग सर, गुड मॉर्निंग मैम.. कहते हुए अपने मॉडल के बारे में बताना शुरू कर देते। सर, वी हैव प्रजेंटिंग दिस मॉडल... अंग्रेजी और हिंदी में बताने के लिए दो अलग - अलग विद्यार्थी हैं। एक ने हिंदी में पूरा रट लिया है और दूसरे ने अंग्रेजी में।

अच्छा लग रहा था। हर विद्यार्थी अपने ही मॉडल को सबसे अच्छा बताने की कोशिश कर रहा था। कुछ छोटे – छोटे बच्चे भी थे, जो पूरी शिद्दत से अपनी बात सामने रख रहे थे। ज्यादातर मॉडल पिछले साल की तरह के ही थे। कुछ तो सीधे – सीधे बाज़ार से खरीदे हुए भी। अब तो बाज़ार में भी मिल जाते हैं। जितने रुपये, उतने बड़े और अच्छे मॉडल। कुछ मॉडल अच्छे थे पर उन्हें समझाने वालों को ही उनके बारे में ज्यादा जानकारी नहीं थी। कोई क्रॉस क्वेश्चन कर देता तो वे बगलें झाँकने लगते।

तान्या उन्हें सामने देखकर बहुत खुश थी। चहकते हुए उसने भी अपने मॉडल के बारे में बताया|

मॉडलों को देखते – परखते वे आगे बढ़ रहे थे। तभी वहां खड़े सूट – बूट पहने एक शिक्षक ने उनसे झुककर हाथ मिलाया। हौले से मुस्कुराते हुए बताया – सर, मैं हूँ साइंस टीचर अष्ठाना। अब आगे जो मॉडल आप देखेंगे। वह हमारा ड्रीम प्रोजेक्ट है। इसे मैंने खुद बच्चों के साथ दो महीने की रिसर्च वर्क के बाद बनाया है। आपने पीएम के स्मार्ट सिटी ड्रीम के बारे में तो सुना ही होगा। हमने उससे भी एक कदम आगे बढ़कर सोचा है, सर। उसके चेहरे पर गर्वीली मुस्कान थी। उन्होंने पूछा – कैसे? उसने फिर झुकते हुए कहा - आइये सर, देखिये तो पहले ..। हमें विश्वास है सर, आप हमारे मॉडल पर कमेंट जरूर लिखेंगे।

मॉडल बहुत बड़ा था। करीब 15-20 बड़ी टेबलों को जोड़कर उस पर बनाया गया था। इसमें गत्ते से बनी बड़ी – बड़ी बहुमंजिला इमारतें थी और उनकी छतों को जोड़ती हुई मेट्रो ट्रेन की पटरियां, पटरियों के आसपास अस्पताल, स्कूल, जिम और शॉपिंग माल। उन्हें अपने शिक्षक के साथ आते देख कर बच्चे पहले ही सावधान हो गए। वहां पहुंचते ही अंग्रेजी वाले विद्यार्थी ने शुरू किया – गुड मॉर्निंग सर, गुड मॉर्निंग मैम.. इट्स आवर प्लेजर देट यू केम टू सी द एक्जीबिशन। दिस इस आवर द बिगेस्ट एंड एस्सेंसियल मॉडल। सुपर स्मार्ट सिटी।

फिर हिंदी वाले विद्यार्थी ने कहना शुरू किया – सर, आपका देश की इस पहली सुपर स्मार्ट सिटी में स्वागत है। हमने इसे सन 2050 के लिए प्लान किया है। यह स्मार्ट सिटी से आगे की फारवर्ड प्लानिंग है। एक ऐसी दुनिया, एक ऐसा शहर जहाँ न गंदगी होगी न प्रदूषण। न ट्रैफिक की समस्या और न ही शोर शराबा। शांति ही शांति। इतनी सोफेस्टिकेटेड और लक्जिरियस लेविश लाइफ स्टाइल होगी यहाँ की सर कि लोग तरसेंगे यहाँ रहने के लिए।

उन्हें उस बच्चे की आवाज़ और लटके – झटके किसी प्रोपर्टी ब्रोकर की तरह के लगे। जैसे कोई एक्सीक्यूटिव अपने प्रोडक्ट की तारीफ़ करता है।

वह तो ठीक हैं बेटा, पर यह सब होगा कैसे – उनका सहज सवाल था।   

सर, मैं आपसे पूछना चाहता हूँ कि कोई भी व्यक्ति अपने घर से बाहर क्यों निकलता है? आप बताइए, सिर्फ तीन वजहों से। अपनी नौकरी या पढ़ाई के लिए, बाज़ार से सामान खरीदने और.. और घूमने – टहलने। हमने यहाँ इस सुपर स्मार्ट सिटी में ऐसी व्यवस्था की है कि उसे बाहर ही नहीं जाना पड़े।

पर...पर ऐसा कैसे हो सकता है – उनका स्वर तल्ख हो गया था।

वही बताना चाहता हूँ सर मैं आपको... देखिये इस शहर को गौर से। इसमें कहीं कोई सड़क ही नहीं है आने-जाने की। यहाँ कोई सड़क नहीं होगी। इन मल्टियों की छत से हमने मेट्रो लाइन निकाली है। सारी आवाजाही इसी से होगी। यहाँ सभी एक ही तरह की बहुमंजिला इमारतें होंगी। ताकि मेट्रो लाइन आसानी से बिछायी जा सके। ऑफिस जाने के लिए इसका इस्तेमाल होगा। बाकी अस्पताल, माल, जिम, टेरिस गार्डन, क्लब, स्वीमिंग पूल, स्कूल, सब कुछ इन इमारतों में ही होगा। प्रदूषण से बचने के लिए फ्लैट में जितनी भी खिड़कियाँ होंगी, उन्हें कांच से पैक कर देंगे। आप देख सकते हैं बाहर की कोई धूल - धक्कड़ अंदर नहीं, प्रदूषण रहित न मच्छर, न चूहे, न छिपकली। बीमारियों से फुल सेफ्टी। सड़क नहीं तो वाहन भी नहीं। न शोर – शराबा और न होगा प्रदूषण। सर ऐसे फ्लैटों की कीमत बहुत ज्यादा होगी, तो इनमें रहेंगी भी पॉश फैमलियाँ। छोटी आमदनी के लोग तो इधर झांकेंगे भी नहीं।

पर जो भी रहेंगे, वे तो कैद होकर रह जाएंगे। कमरों के ताबूत में बंद लोग। न धरती उनकी, न आकाश और न खिड़कियाँ  – वे बोले। पत्नी ने रोकने की कोशिश की पर वे नहीं रुके।

इसी बीच सूट – बूट वाले अष्ठाना सर आ गए थे। वे समझा रहे थे -  ऐसी बात नहीं है सर।  प्लीज कूल, डोंट वरी। मार्डन रॉयल लाइफ स्टाइल है। इट्स लेविशनेस सर।

हाँ – हाँ, तुमने ही इन्हें इस तरह बताया है न। ये क्या सीखा रहे हैं आप हमारे बच्चों को। किस लेविशनेस की बात कर रहे हैं आप। हमें कहाँ ले जाना चाहते हैं आप। मैं भी विकास का विरोधी नहीं हूँ, चाहता हूँ कि विकास हो, पर प्रकृति से कटकर कैसा जीवन। क्या रहना और खाना ही जिन्दगी है। बाकी कुछ भी नहीं। एक्वेरियम में रखी मछलियाँ देखी हैं आपने या चिड़ियाघर में जानवर। उस तरह आप हमें भी... - वे कहना चाहते हैं पर उनका गला भर गया। उन्हें लगा कि वे किसी अंधे कुएँ में खड़े हैं।

 


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