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Vandana Gupta

Drama Tragedy

4.9  

Vandana Gupta

Drama Tragedy

वो लम्हे

वो लम्हे

7 mins
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अनूप मुझे झकझोर कर जगा रहे थे, मैं पसीना पसीना हो रही थी। आज फिर वही सपना आया था, मीलों दूर तक फैला पानी.. बीचों बीच एक भूतहा खंडहर और उस खण्डित इमारत में पत्थर का एक बुत...। मैं हमेशा खुद को उस बुत के सामने खड़ा पाती हूँ.. मेरे देखते ही देखते वह बुत अपनी पत्थर की पलकें झपका कर एकदम आँखें खोल देता है... आँखों से चिंगारियां फूटने लगती हैं.. फिर वह लपट बनकर मेरी ओर आती हैं, एक अट्टहास के साथ... मैं पलटती हूँ और वह हँसी एक सिसकी में बदल जाती है... मैं बाहर भागती हूँ.. पानी में हाथ पैर मारती हूँ... तैरने की कोशिश करती हूँ.. आँख नाक कान सबमें पानी भर जाता है... दम घुटने लगता है…. मैं डूबने लगती हूँ और फिर... अचानक नींद खुल जाती है..!

"क्या हुआ ? कोई डरावना सपना देखा..?" अनूप की आवाज़ कहीं दूर से आती प्रतीत हुई। मेरी आँखें अपने आप मुंदने लगीं।

"मम्मा आज सोशल साइंस की एग्जाम है.." छः बजे ऋचा मुझे जगा रही थी। वैसे तो रोज स्कूल के लिए इसे जगाने में मुझे काफी मशक्कत करनी पड़ती है, पर परीक्षा के समय बिटिया कुछ ज्यादा समझदार हो जाती है। इसकी यही समझदारी मुझे निश्चिंत करने के बजाय आशंकित कर देती है। बरसों से कहीं गहरे दफन किया हुआ राज धीरे-धीरे दिल-दिमाग पर जमी मिट्टी खोदकर उसके खूँखार पंजे बाहर निकालने लगता है...! मैं सिर झटक कर उठ बैठी... सब विचारों और सपने के भय को परे हटा किचन में घुस गयी।

ऋचा स्कूल और अनूप ऑफिस जा चुके थे। बेटे ऋत्विक के रूम में जाकर देखा, महाशय जमीन पर सो रहे थे और बेड पर किताबें पसरी पड़ी थीं। उसके बेतरतीब रूम को देखकर मन फिर पुरानी गलियों में बेतरतीब भटकने लगा।

"बेटा ! ये क्या है, परीक्षा का मतलब ये तो नहीं कि किताबें पूरे कमरे में बिखर जाएं.." माँ अक्सर मुझे डाँटा करती थीं, किन्तु मुझ पर कोई असर नहीं होता था। परीक्षा के दिनों में एक जुनून सवार हो जाता था... मुझे खूब पढ़ना है और प्रथम आना है.. पहली कक्षा से लेकर दसवीं तक हमेशा स्कूल में प्रथम आयी थी। ग्यारहवीं कक्षा में एक नयी लड़की ने प्रवेश लिया।

"श्वेता ! ये मेधा है, नया एडमिशन हुआ है, तुम क्लास टॉपर हो, इसकी मदद कर देना, पिछले नोट्स देकर.." मैडम ने मेरा परिचय करवाया। मैं दर्प से भर उठी, उससे दोस्ती भी हुई, मदद भी की.. धीरे धीरे जाना कि वह मुझसे ज्यादा होशियार थी। मैं तो सिर्फ पढ़ाई में टॉपर थी, पर वह हर गतिविधि में भाग भी लेती और पुरस्कार भी प्राप्त करती। इस वर्ष मेरा मन पढ़ाई में कुछ कम लगने लगा था। मेधा से प्रतिस्पर्धा के चलते वह मेरे दिमाग में रहने लगी, इसके विपरीत मेधा मुझे दिल में उतारती जा रही थी। हम दोनों की दोस्ती उसे खुशी और मुझे तनाव दे रही थी। फिर वही हुआ, जिसका डर था, मेधा प्रथम और मैं कक्षा में पहली बार द्वितीय आयी थी।

"मम्मी, नाश्ता लगा दो.." ऋत्विक की आवाज़ मुझे फिर वर्तमान में ले आयी।

"कितने बजे सोया था ?" मैंने खुद को अतीत से बाहर लाने के लिए पूछा..!

ऋत्विक ने क्या कहा और टेबल पर नाश्ते की प्लेट और सूप का कटोरा कब खाली हुआ, मैं नहीं जान पायी। मेरा मन तो बरसों पहले मेरी जिंदगी के खालीपन को टटोलने चला गया फिर से..!

"श्वेता ! तू एक नम्बर और ले आती यार, या मेरा एक नम्बर कम आता तो हम दोनों के मार्क्स इक्वल होते..." मेधा की आवाज़ को अनसुना कर मैं खुद पर गुस्सा हो रही थी कि दो नम्बर का सवाल सही किया होता तो मैं हमेशा की तरह प्रथम आती।

यही तो अंतर था उसमें और मुझमें... वह जितना मुझे अपना दोस्त समझती, मैं उसमें अपने दुश्मन का अक्स देखती, उसके प्रति मेरी ईर्ष्या बढ़ती जा रही थी।

जीवन के सारे रंग अपने में समेटे समय भी आगे बढ़ रहा था। स्कूल के आखिरी वर्ष में हमेशा स्कूल ट्रिप पर शहर से दूर ले जाते थे। हमें भी ले गए थे.. वह एक पहाड़ की तराई में बसा गाँव था.. बहुत बड़ी नदी और उसमें बीचों बीच बना एक टापूनुमा मन्दिर जैसा था, जहाँ स्टीमर से जाया जाता था। वह स्थान काफी बड़ा था। मैं वहाँ विचर रही थी कि कॉलबेल ने तन्द्रा तोड़ दी।

"मम्मा ! आज का पेपर भी बहुत अच्छा हुआ.. अब बस दो महीने की छुट्टी... भैया की एग्जाम के बाद हम घूमने चल रहे हैं न..?"

"हाँ बेटा ! इस बार डैडी ने साउथ घूमने का प्लान बनाया है, भैया की इंजीनियरिंग पूरी होने पर वह पता नहीं कहाँ जाएगा और अब दो साल तू भी स्कूल और कोचिंग के बीच चकरघिन्नी बनकर घूमेगी... इस साल के बाद पता नहीं कब कहाँ जाना होगा.."

एग्जाम से फ्री ऋचा सहेलियों के साथ घूमने चली गयी, बेटा पढ़ने में मशगूल और मैं फिर सोच में डूब गयी। ऋचा भी मेरी तरह हमेशा प्रथम आती है, पाठ्येत्तर गतिविधि में भी उसके पुरस्कार मुझे मेधा की याद दिला देते और मेरे मन में एक आशंका पैर पसारने लगती। मेरा दिल ऋचा को मेरी या मेधा की जगह देखना नहीं चाहता, किन्तु दिमाग कोई तीसरी जगह तलाश ही नहीं कर पा रहा है।

उस दिन स्कूल ट्रिप से मैं बहुत बड़ा बोझ लेकर लौटी थी, इतना बड़ा कि उसे ढोते-ढोते मैं मर-मर कर जी रही हूँ। बोझ भी और खालीपन भी... कभी कभी दिल का बोझ और दिमाग का खालीपन मुझे बेचैन कर देता है। ऋचा की दसवीं की परीक्षा खत्म होना और आज फिर उस सपने का आना.... ! मैं घबरा गयी.. अच्छा हुआ अनूप आ गए और मुझे सोच से बाहर आने में मदद मिली। इन्हें कैसे पता चल जाता है कि मैं गहरे गड्ढे में गिरने वाली हूँ और एकदम आकर हाथ खींच लेते हैं।

अगला महीना सफर की तैयारी में बीत गया। मैंने दिल और दिमाग को इतना व्यस्त रखा कि कुछ और सोचा ही नहीं।

हमारा टूर काफी अच्छा चल रहा था.. ऋचा और ऋत्विक अपने नए अनुभव सोशल मीडिया पर शेयर कर रहे थे और अनूप भी उनके साथ पूरे मनोयोग से जुड़कर चर्चा में हमेशा की तरह शामिल थे.. बस मैं ही बार-बार अतीत में पहुँच जाती थी।

कन्याकुमारी के विवेकानन्द रॉक मेमोरियल पहुँच कर तो मैं स्तब्ध रह गयी।

"सन 1892 में स्वामी विवेकानंद कन्याकुमारी आए थे। वे तैर कर इस विशाल शिला पर पहुँचे और इस निर्जन स्थान पर साधना के बाद उन्हें जीवन का लक्ष्य एवं लक्ष्य प्राप्ति हेतु मार्ग दर्शन प्राप्त हुआ था.." अनूप बोल रहे थे....मुझे उस मूर्ति की आँखों से निकलती चिंगारियाँ दिख रही थी।

"इसके कुछ समय बाद ही वे शिकागो सम्मेलन में भाग लेने गए थे और वहाँ भारत का नाम ऊँचा किया था। उनके अमर संदेशों को साकार रूप देने के लिए ही 1970 में इस विशाल शिला पर भव्य स्मृति भवन का निर्माण किया गया..."

मुझे वे चिंगारियाँ लपटों में बदलती दिख रहीं थीं..मैं फिर पानी में डूब रही थी... यह शोर कैसा है ?

"किसी ने मेधा को देखा..?" टीचर की आवाज़ आयी..

"हाँ मेम ! वो नदी में उस मूर्ति के पीछे जा रही थी... "मेरा दिल बोलना चाह रहा था, किन्तु दिमाग रोक रहा था.."पागल है क्या, उससे बदला लेने का मौका मिल रहा है, होने दे परेशान उसे.."

दिमाग जीत गया था और मेधा जिंदगी हार गयी थी...!

"मेधा....." मेरी आवाज से ऋचा चौंक गयी... "डैडी ss... मम्मी को क्या हुआ ?"

मोबाइल बज रहा था... मुझे अनूप ने फिर गढ्ढे में से बाहर निकाल लिया...!

"मम्मा मेरा रिजल्ट आ गया... मैं इस बार थर्ड पोजीशन पर हूँ.. 93 प्रतिशत है.." ऋचा खुश थी.

"अरे वाह..! अब तो यहीं पार्टी करेंगे.. ऋत्विक और अनूप चहक रहे थे..!

मैंने मूर्ति की ओर देखा... उसका चेहरा मुस्कुराता लगा..

"मम्मा मेधा कौन है..?"

"मेरी पक्की सहेली थी.. हमारे स्कूल ट्रिप में एक नदी में ऐसी ही मूर्ति के पीछे पानी में डूब गयी थी... और...." मैं फूट फूट कर रो पड़ी...! बरसों से जमा मेरा अपराधभाव धीरे धीरे पिघल रहा था...

"वह एक दुर्घटना थी.." दिल ने कहा..

"लेकिन......" दिमाग को मैंने सोचने ही नहीं दिया...

ऋचा का मोबाइल फिर बजा.... " पलका तुझे फर्स्ट आने की बधाई... और मैं अभी कन्याकुमारी में हूँ दो दिन बाद लौटूंगी, तब पार्टी करते हैं चल बाई.."

"बेटा ! परीक्षा की मेरिट को कभी भी सहेलियों के बीच मत आने देना..."

"हाँ मम्मा ! मुझे पता है..."

ऋचा की थर्ड पोजीशन आज मुझे असीम राहत दे गयी...

मूर्ति की आँखों में कोई आग नहीं थी, उसके चेहरे में मेधा का चेहरा नज़र आया... उसकी मुस्कुराहट मानो मुझे माफी दे रही थी....

वर्षों से मेरे मन के तहखाने में कैद वो लम्हे पिघल कर मानों बून्द बून्द बह रहे थे......!!


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