बदलते उसूल
बदलते उसूल
पहली तनख्वाह मिलने की खुशी में अंतर्मन तक भीग गयी थी सुमन... आखिर कितने वर्षों की मेहनत के बाद यहाँ तक पहुँची थी. वह ऑफिस से सीधे मार्केट गयी. घर पहुँचते ही उसने चहक कर सबको इकट्ठा कर लिया.
"यह तेरे लिए मेरी पहली तनख्वाह से खरीदा हुआ उपहार..." पहला पैकेट उसने छोटी बहन की ओर बढ़ाया. दोनों के चेहरे पर बेशुमार खुशी थी. दूसरा पैकेट छोटे भाई को देते हुए उसके चेहरे पर खुशी के साथ जिम्मेदारी वाला भाव भी नज़र आया. तीसरा पैकेट पिताजी को दिया और कहा.. " आपने मुझे इस लायक बनाया कि मैं आज आपके लिए कुछ खरीद सकी.. आपके सहयोग,आशीर्वाद और स्नेह के बिना मैं कुछ नहीं हूँ.. कृतज्ञतास्वरूप मेरे स्नेह की तुच्छ भेंट स्वीकार कीजिए..! पिता की आँखों मे आशा और स्नेह के असंख्य दीप जल उठे.
अंत में वह माँ की ओर मुखातिब हुई और एक पैकेट उनकी ओर बढ़ाया ही था कि माँ एकदम से पीछे हटते हुए बोलीं.... "न न बेटा... हमें तेरी कमाई खाकर अधर्मी नहीं बनना.. तेरा
पैसा इकट्ठा होने दे, तेरी शादी में तुझे ही दे देंगे, हमें कुछ नहीं चाहिए.."
वह एकदम बुझ सी गयी. फिर उसने माँ का हाथ पकड़ा और सीधे उनकी आँखों में देखा...
"माँ! एक बात बताओ यदि आपको पहला बेटा होता और आज वह कमाने लायक होता तो आपको ज्यादा खुशी होती न..?? उसकी कमाई पर आप अपना हक समझती और उसके दिए उपहार पर आपत्ति भी नहीं करतीं.."
माँ निरुत्तर देखती रहीं... वह आगे बोली.." मैं लड़की हूँ तो क्या आपने मेरी शिक्षा या परवरिश में कोई कमी की..? या बेटे और बेटी के लिए कोई अलग मापदण्ड रखे?? नहीं न.. जब एक जैसा दिया है तो एक जैसा लेने में आपत्ति क्यों??? " वह थोड़ी उदास हो गयी थी. "शायद... इसी कारण लोग बेटी नहीं बेटा चाहते हैं... "
माँ अचानक ही सदियों का सफर कर आयीं.. "नहीं मेरी लाडो... तूने मेरी आँखें खोल दीं.. मेरे लिए बेटे बेटी में कोई फर्क नहीं.. बता क्या लायी है मेरे लिए..."
.... और उसने सुमन को गले से लगा लिया..!