मैं अलग हूँ
मैं अलग हूँ
सुधीर ! सुधीर !! "मिष्टी ने पहली बारम मम्मा कहा है | जल्दीआओ !" सुनिधि ने घर के बहार के गार्डन में बागवानी करते अपने पति को आवाज़ दी।शादी के 8 साल गुजरने के बाद माँ बनी सुनिधि अपनी बेटी से असीम प्रेम करती थी| सुधीर से भी उतना ही लाड़ मिलता ,|दो साल की मिष्टी पर जैसे दुनिया निसार दी हो शर्मा दम्पंती ने। सुधीर शर्मा की बात की जाय तो वे एक प्रिंटिंग प्रेस के मालिक थे| अपने सैंतीसवे वर्ष में कदम रखते सुधीर अत्यंत सुलझे व आशावादी इन्सान थे | बचपन से ही लेखन के शौक़ीन रहे व खेल-कूद में भी दिलचस्पी रखते थे | इसी वजह से वे इतने चुस्त व दुरुस्त थे कि कोई भी उन्हें 30-32 वर्ष से एक दिन ऊपर कहने की भूल न कर सके | शर्माजी के मित्रों व उनके चाहने वालों से उनके विषय में पूछने पर यह आसानी से कहा जा सकता था कि वे रंगमंच के एक उम्दा अभिनेता, सशक्त कवि, व एक विलक्षण कहानीकार थे। इतना ही नहीं, कला व साहित्य में रूचि होने के साथ-साथ वे एक अच्छे विचारक भी थे।वे इस बात से भलीभांति वाकिफ़ थे कि आजीविका के लिये कला पर निर्भर रहना तर्कसंगत न था। माता-पिता की इकलौती संतान होने के नाते उनके विवाह के लिए बचाए हुये अच्छे-खासे रुपयों पर उनका हक़ तो था ही, परन्तु वे विवाह करने के सख्त खिलाफ़ थे| उन्हें लगता था वे अलग हैं। सिर्फ विवाह करने व वंशोत्पत्ति के लिये उनका जन्म नहीं हुआ | वे कुछ बड़ा करना चाहते थे। माता-पिता का विश्वास जीतने जैसी कोई बात नहीं थी क्यूंकि उन्हे पुत्र की प्रतिभा पर पूरा विश्वास था। माता-पिता की जमा-पूंजी के सहारे उन्होंने एक छोटा व्यापार डाला| मेहनत करते चले गये, और फ़िर पीछे मुड़कर नहीं देखा | पर इस बात में भी कोई दो राय नहीं है कि व्यक्ति को कभी न कभी अपनी कामनाओं की वरीयता निश्चित करनी ही होती है। सुधीर की कामनाओं में पैसा पहले व कला दुसरे पायदान पर गयी। समय बीतते, स्वयं को सामान्य से अलग साबित करने की चाह भी धुंधली होती चली गयी व एक साथी की कमी महसूस होने लगी| सुनिधि के उनके जीवन में आने से वो कमी भी पूरी हो गयी। दरअसल सुनिधि उनके जुनूनी दिनों में लिखे व निर्देशित किये नाटकों में अभिनय किया करती थी व उनकीअच्छी मित्र भी हों गयी थी। फ़िर काफ़ी सालों बाद दोनों की एक आर्ट एग्ज़ीबिशन में मुलाकात हुयी। पहली बार सुधीर ने सुनिधि को एक कलाकार की छवि के बाहर देखा | वो इसीलिए क्यूंकि शायद वह स्वयं भी अब अपने व्यापार व धनोपार्जन को कला से अधिक महत्व देने लगे थे। अब श्रीमान सुधीर, सुनिधि की शख्सियत को जानने के इच्छुक होने लगे थे| अत्यंत प्रतिभाशाली व्यक्तित्व व सुन्दरता की मूरत सी सुनिधि, सुधीर को भा गयी और उन्होंने विवाह करने का निर्णय लिया। जैसे-जैसे दाम्पत्य जीवन आगे बढ़ने लगा कुछ नई आशाओं ने जन्म लिया। किताबों की जगह अख़बारों ने, डायरी की जगह फाइलों ने, कविताओं की जगह म्यूजिक ने और थियेटर की जगह फिल्मों ने ले ली| समय बीतता चला गया| वो धुनी, जुनूनी, कर्मठ, अलबेले, दृढ़ निश्चयी सुधीर अब एक सामान्य इन्सान थे। पर जब से मिष्टी का जन्म हुआ था, उनकी कल्पनाओं को नये पर लग गए थे। आदत अनुसार वह एक बार फिर स्वयं को सिद्ध करना चाहते थे। इस बार अपनी प्रतिभा से नहीं, अपनी संतान की परवरिश से। शायद उन्हे इस बात का पूर्णतः ज्ञान नहीं था कि उन्हें आखिर क्या सिद्ध करना था? पर यह तय था कमिष्टी उन्हें हर पल जीत का अहसास दिलाती थी। अब उन्हें लगता था कि मिष्टी को सही परवरिश देना ही उनकी सफलता है। घर में प्रवेश करते ही सुधीर को बेटी के सिरहाने बैठ कर लाड़ लड़ाते देख सुनिधि मंद-मंद मुस्काया करती थी | आज मिष्टी ने जन्म के पूरे दो साल बाद एक शब्द कहा था। अपनी लाडली के मुँह से “मम्मा” सुनकर उसका रोम-रोम खिल उठा और वो अब भी अपने सबसे ऊँचे स्वर में सुधीर को पुकार रही थी “सुधीर !! जल्दी आओ प्लीज़। ”सुधीर अपने मटमैले हाथ लिए कलाई से पसीना पौंछते हुए कमरे की तरफ़ भागे व अपनी बेटी को आखिरकार छोटे-छोटे, टूटे-फूटे शब्द बोलते देख यकायक कह पड़े “सुनिधि मैं ना कहता था मिष्टी बाकी सब बच्चों से हट कर है | भले ही उसने सामान्य बच्चों की तुलना में देर से बोलना सीखा, पर उसका उच्चारण कितना साफ़ है ।हमारी बिटिया अलग है ।” मिष्टी बड़ी होती चली गयी| शारीरिक बनावट में माँ जैसे तीखे नैन नक्श तो न थे परन्तु पिता जैसा गेरुँआ रंग व बेहद घुंघराले बाल ज़रूर मिले थे। रंग-बिरंगी झल्लर वाली विभिन्न फ्रोक्स और तरह-तरह के महंगे जूतों में जब मिष्टी अपने मम्मी-पापा की ऊँगली पकड़ कर घर से बाहर निकलती तो सब गृहिणियों के मुँह फटे रह जाते। “इतने सुन्दर कपड़े,चप्पल कहाँ से लाते हो मिष्टी बिटिया के लिए? बड़ा जंचते हैं” जैसी बातें तो आये दिन सुना करती थी सुनिधि, परन्तु “बड़ी ही प्यारी बिटिया है” यह बात सिर्फ उसके पति से ही सुनने को मिलती।
“सबसे अलग है मेरी परी| सबसे अच्छे वेश, सबसे अच्छा स्कूल, सबसे हटकर खिलौने चुनुँगा मैं इसके लिये" सुधीर बड़े गुमान से कहा कहते थे। यह बात सुनिधि से छिपी नहीं थी कि सुधीर को मिष्टी से बहुत उम्मीदें थी| उन्हें लगता था उनकी बेटी उन्ही की तरह बनेगी, वो सब करेगी जो उन्होंने अधुरा छोड़ दिया। मिष्टी के खिलखिलाते बचपन को देखते हुए वह भी अपने पति के साथ सपने बुनने में मसरूफ रहने लगी।
मिष्टी स्कूल जाने लगी थी। हालांकि सदा दोस्तों की टोली से घिरी हुई, खेल-कूद में अव्वल, पढाई में तेज़, टीचर्स की मनपसंद होने जैसा कोई जुमला उसके साथ नहीं जुड़ा। मिष्टी तो इन सब चीजों से बिलकुल पलट थी| शांत, शिथिल और ज़िद्दी, जिसका पढाई लिखाई से कुछ विशेष लगाव नहीं था। जब भी सुनिधि किसी अध्यापक से मिष्टी की शिकायत सुनती तो उसका खून खौल उठता। वह तो अक्सर स्कूल
में लड़ आया करती थी | कहती पढाई में दिलचस्पी ना लेना मेरी बेटी की कमजोरी नहीं, आपके संस्थान की ही कोई कमी है। पर कभी-कभी मिष्टी की शिथिलता और चिडचिडापन उसके सब्र का बाँध तोड़ देता था और वो झुंझला कर अपने पति से कहती "कभी लाड़-लड़ाने से फुर्सत मिल जाए तो उसे सख्ती से कुछ समझाया भी करो। पैसा कमाने और बेटी पर लुटाने से सारी ज़िम्मेदारी पूरी नहीं होती। तुम जैसा दिमाग शायद है उसमे पर उसे इस्तेमाल कैसे करना है यह भी तो सिखाना होगा उसे?” बदले में बस वही मिलता, “ओहो, बच्ची है वो| अभी से मत बड़ी बना दो उसे। कौनसी ज़िम्मेदारीयों का एहसास करवाओगी उसे इस उम्र में ? और रही बात पढाई की, उसे पहले समझ तो आने दो कि पढाई होती क्या है? मेरी मासूम बच्ची की मासूमियत मत छीनो”|
बीतते सालों के साथ सुधीर का रवैय्या कुछ यूँ हो गया कि अब वे बिना कुछ सुने ही सुनिधि को डांट दिया करते थे “भगवान के लिए अब मिष्टी को गुप्ता जी के बेटी के रिपोर्ट कार्ड या मेहता जी के बेटे के अनुशासन से मत कम्पेयर करो| फॉर गोड्स सेक ये देखो की वो क्या अलग कर रही है । सब बच्चों की पढने में रूचि हो ये ज़रूरी तो नहीं”
“छह साल की उम्र में वो संगीत सिख रही है| मुझसे घंटों कहानियां सुनती है| जो भी सुन लेती है, कैसे पटर-पटर दोहराती है ।कल्पनाशील मस्तिष्क की कोई कमी नहीं उसमें । और रही बात कम दोस्त होने की, सामान्य लड़की नहीं है वो, अलग है ।” सुनिधि कुछ ना कह पाती ।
उम्र के पन्द्रहवें पड़ाव में मिष्टी की रहस्यमयता अपने पिता के दाढ़ी के सफ़ेद बालों की तरह ही बढ रही थी । एकाकी स्वभाव की वजह से वह ज्यादा बात-चित नहीं करती थी, परन्तु अपनी डायरी में बहुत कुछ लिखा करती थी । और रात में मधुर गिटार बजाया करती थी । सुधीर और सुनिधि उसे खुद में ही रमा देखकर खुश हुआ करते थे ।अब अधिकतर वक्त अपने कमरे में गुज़ारती मिष्टी माँ से बहुत ही कम बात करती और पिता से सिर्फ म्यूजिक क्लास व राईटर्स के बारे में चर्चा किया करती थी | उसे अपने दुसरे स्वरूप की तरह बनता पाकर सुधीर को बड़ा सुकून मिलता |
“मेरी बेटी पैसा, नौकरी, दुनियादारी के चक्कर में नहीं पड़ेगी| कहा था ना, कला के क्षेत्र में अपना नाम बनायेगी । तभी मैंने उसका ध्यान बचपन से ही वहीँ लगाया ।” सुधीर ने अपना सीना गर्व से फुलाते हुये अपने घर आये दोस्तों से कहा जब मिष्टी स्कूल के सिंगिंग कोम्पीटीशन में पहले स्थान पर आयी थी । हर एक चाही गयी शय को एक बार कहने से ही मिल जाने की आदत सी हो गयी थी मिष्टी को| शायद इसी वजह से उसे ख़ुशी के मायने ही नहीं पता थे| हर बार मिष्टी बिना उछले-कूदे और अपनी उपलब्धियों का गुणगान किये शेल्फ में एक के बाद एक ट्रोफी रखती चली जाती |
"ये है एक विनर की निशानी । छोटी-मोटी जीत खुशियाँ नहीं देती एक प्रगतिशील इंसान को| और यही बात तो उसे शिखर तक लेकर जाती है ।" सुधीर मन ही मन सोचा करते “यही चीज़ एक विनर को एवरेज से अलग बनाती है ।”
मिष्टी 18 की हो गयी । व्यवहार में ज्यादा कोई बदलाव नहीं आया । कम बोलती थी, कम मित्र थे । हाँ, लिखने में समय ज्यादा बिताने लगी थी । गाने में रूचि अधिक लेने लगी थी और संगीत में काफ़ी बेहतर हो गयी थी| मगर पढाई में अब भी कमज़ोर । कोलेज के लिये आर्ट सब्जेक्ट चुनना उसे सबसे श्रेष्ट लगा । राहत की बात यह थी कोलेज में दाखिला होते ही पढाई में अच्छे ग्रेड्स का कोई दबाव नहीं था । वो अब भी भीड़-भाड से दूर रहती थी । अब भी उसका कम्फर्ट ज़ोन था उसका आधुनिक सुविधाओं से लैस, कीमती फर्नीचर वाला कमरा । उसके द्वारा जीती गयी सब ट्रोफ़िज़ और सर्टिफिकेट्स को लिविंग रूम में पटक दिया करती और जब कारण पुछा जाता तो अपने पिता के लहज़े में कहती, "कमरे की जगह बड़ी उपलब्धियों के लिए छोड़ रखी है, इन सब से ज़्यादा ख़ुशी नहीं मिलती"। सुनिधि इस बात पर ठहाका लगाकर हँस पड़ती । अब उसे एक युवती में तब्दील होता देख पिता चाहते थे कि वह थियेटर में रूचि ले । पर खाने-पिने की कोई रोकटोक ना होने की वजह से मिष्टी का वज़न बढे जा रहा था। 18 की उम्र में मिष्टी अपनी उम्र से ज़्यादा बड़ी नज़र आने लगी थी । सदैव उलझे रहने वाले बाल जिसे ऊँची पोनी टेल में बांधे, आखों के नीचे पड़े काले घेरों को मोटे चश्मे की आड़ में नज़रंदाज़ करती मिष्टी को अपनी किताबों, और ख्वाबों की दुनिया से ऊपर आकर ख़ुद के व्यक्तित्व को निहारने का समय ही कहाँ था । एक दिन अपने द्वारा लिखित किसी प्ले की चर्चा करते-करते सुधीर बेटी से हँसी-मज़ाक करते कहने लगे “खाते-पिते घर की मधुबाला लगेगी मेरी बेटी अगर रोल मिल गया तो|सब सुकडी सी पतली-दुबली लड़कियों से हट कर " चिढ़ाने के लहज़े से पििता ने मिष्टी की ओर देखा| मिष्टी के हाव-भावों में कुछ ख़ास परिवर्तन नहीं आया । वो दीवार पर एकटक लगाकर बस अपने नाख़ून चबा रही थी । उसके पैर ऐसे हिल रहे थे मानो दिमाग ने पेशियों पर नियंत्रण खो दिया हो । सुधीर ने ऊँची आवाज़ में कहा “मिष्टी!” “सुन रही हो बेटा?” मिष्टी चौंक गयी| ऐसे हडबडाई जैसे अचानक नींद से जग गयी हो । पिछले कई वर्षों से अपनी बेटी के इस व्यवहार को ‘अलग’ समझकर गर्व करने वाले सुधीर का उस रात अचानक माथा ठनका । उन्हें पहली बार मिष्टी की भावभंगिमा असामान्य लगी । बेटी से कुछ पूछे बिना सुधीर अपनी जगह से उठे, और शुभरात्रि कहकर अपने कमरे की ओर बढ़ चले । उस रात उन्हें नींद नहीं आई ।
अगले दिन मिष्टी के कोलेज के लिये निकलते ही वे उसके कमरे में गये और आतुरता से यहाँ वहां खोजबीन करने लगे । सुनिधि ने बड़े आश्चर्य से पूछा, “आप मिष्टी के कमरे में क्या कर रहे हो?” सुधीर ने कहा “अरे वो मिष्टी को कुछ महीनों पहले एक नावेल पढने दी थी, वो ढूंढ रहा हूँ” । सुनिधि को अपने पति का जवाब संतुष्टिजनक नहीं लगा । उसका पूरा ध्यान उनकी गतिविधियों पर था परन्तु बिना किसी हस्तक्षेप के वो अखबार पढने की चेष्टा करने लगी ।
दराज़ में सजी दुनिया भर की फिक्शन नोवेल्स की श्रृंखला, दीवार पर टंगी मिष्टी की बनाई हुई पेंटिंग्स, गिटार और एक सिंथेसाइज़र के इलावा उसके कमरे में और कुछ न था । उस साफ़-सुथरे से कमरे में सिर्फ उसकी अलमारी व स्टडी टेबल के दराज़ को टटोला जा सकता था । सुधीर ने कंपकंपाते हाथों से स्टडी टेबल पर रखी चीजों को देखा जिसपर कोलेज के कुछ नोट्स, स्केच पेन्सिल, गिटार के पिक बिखरे थे । पर मिष्टी जैसी संजीदा लड़की निजी सच्चाई प्रदर्शित करने में शायद इतनी प्रत्यक्ष नहीं हो सकती, सुधीर ने यह सोचकर दराज़ खंगालना शुरू किया । 3-4 पुराने ग्रीटिंग कार्ड्स, कुछ मोमबत्तियां, ड्राइंग शीट्स, नोक से टूटे हुए पेन्स और चोकलेट्स के रेपर्स के बिखराव में एक ‘गन शेप’ का लाइटर पड़ा था । सुधीर ने उसे जलाया और जलते ही उससे डीश्क्याओं की आवाज़ आई । होठों पर सुखी सी मुस्कान के साथ सुधीर बुदबुदाये “किसी दोस्त ने गिफ्ट किया होगा”। वहां कुछ न मिलने पर वे बेटी की अलमारी को ओर बढे । अलमारी नहीं खुली ।मिष्टी अक्सर उसे लॉक करके ही बाहर जाती थी । वे निराश होकर दरवाज़े की तरफ मुड़ने को हुए, कुछ पलों के लिये रुके.....| फिर उल्टे पैरों से पुनः कमरे की ओर रुख किया । आँखें अब भी कुछ खोज रही थी, जो मिष्टी के बिस्तर पर जाकर रुकी । सुधीर ने तुरंत उस बड़े से आरामदायक गद्दे को उठाकर देखा । बिस्तर के कोने में एक डायरी दबी थी । सुधीर ने कमरे का दरवाज़ा बंद किया और डायरी खोली । सुधीर को यह पता था कि मिष्टी डायरी लिखती है, और वे शायद उसी की तलाश में थे| डायरी लगभग पूरी भरी हुई थी, क्यूंकि साल ख़त्म होने में बस कुछ ही में बस कुछ ही दिन बाकी थे । डायरी के पहले पन्ने पर लिखा था “द डीफ्रेंट गर्ल”
सुधीर का दिल ज़ोरों से धड़कने लगा पर बिना पढ़े डायरी रखने की चेष्टा का कोई प्रतिफ़ल न निकला । सुधीर ने पन्ने पलटना शुरू किया| बेहद बुरी लिखावट और आढे-टेढ़े चिन्हों के साथ हर पन्ने पर कुछ आधा-अधुरा लिखने की कोशिश की गयी थी । सुधीर ने एक पन्ने पर अपनी निगाह रोकी जिसपर उसका ज़िक्र था
"आज मेरा बारहवीं का रिज़ल्ट है| थोडा डर लग रहा है....मैंने सारा साल कुछ नहीं पढ़ा....पर मुझे पढने की क्या ज़रूरत? पापा मुझे कभी नहीं डांटेंगे । वो ही तो कहा करते हैं, पढाई लिखाई सबकुछ नहीं होती | जो मन में आये करो । निशा के पापा से कितने अलग हैं मेरे पापा....निशा बता रही थी उसके पेपर्स अच्छे हुए...वो फिर फर्स्ट आयेगी...पर मुझे क्या ? मैं तो अलग हूँ....और वैसे भी उस जैसी पढ़ाकू मेरे लेवल पर नहीं आती........मैं उससे बात नहीं करुँगी...वो और उसकी बोरिंग पढाई की बातें..."
अगले कुछ पन्नो पर उसके पसंदीदा गानों के गिटार नोट्स थे । एक और पन्ना खोला जिसमे लिखा था
आज कुछ अच्छा नहीं लग रहा । कहीं मन नहीं लग रहा । ये खालीपन की फीलिंग जा ही नहीं रही । आज पुरे दिन में 20 सिगरेट्स फूंकी...पर तब भी दिमाग शांत नहीं हुआ....थैंक गॉड रात हो गयी....कल का दिन कैसे काटना है ये सुबह सोचूंगी.... फिर कुछ और पन्नों पर अलग-अलग लड़कों के नाम थे जिन्हें हर एक नंबर और डेट के साथ बोक्स बना कर लिखा था । सुधीर कुछ समझ नहीं पा रहे थे । हर पन्ने के साथ बेचैनी और बढ़ रही थी । कभी किसी पन्ने पर कुछ अस्पष्ट स्केच बनाये मिले तो कहीं-कहीं सिर्फ गाली गलौच भरे शब्द ।
सुधीर ने पन्ने पढना जारी रखा
“अकेले चरस लेना और म्यूजिक समझना एक अलग ही एक्सपेरीएंस है। कभी-कभी घर में इतनी तलब होती है और मम्मी-पापा के सामने कण्ट्रोल करना बड़ा मुश्किल होता है । सोच रही हूँ पापा को बता दूं, उनसे कहूं कि मुझे आदत है नशा लेने की, शायद वो समझेंगे। पापा को आज तक मेरी कोई बात गलत नहीं लगी है । वो कभी नहीं डांटेंगे मुझे । उनकी प्यारी बेटी हूँ मैं....कल बता दूंगी”
अगली तारीख का पन्ना खाली था |
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‘पापा को बता देती हूँ । पर क्या उनको ये बात सही लगेगी? अगर उनको गुस्सा आ गया तो? मैंने उनका गुस्सा कभी नहीं देखा...मुझे गुस्से से डर लगता है....उन्होंने मुझे डांटा तो मैं उनकी परी नहीं रहूंगी....अगर वो मेरे बारे में जानेंगे तो शायद मैं उन्हें पसंद ना आऊं....पर मैं ये नहीं देख सकती...मुझे रोना आ रहा है.....डेमइट..आजकल ये भी समझ नहीं आता कि मुझे इतना रोना क्यूँ आता है....रोने से हल्कापन लगता है....शायद मुझे रोने की लत लग गयी है....रोने के बाद अच्छा लगता है.....
सुधीर पन्ना दर पन्ना पढ़ते जा रहे थे..
सब तरीके आज़मा के देख लिए....कहीं ख़ुशी नहीं मिलती....थोड़ी देर के लिये मिलती है...बस टाइम कट रहा है...मज़ा नहीं आ रहा.....मुझे सड़क पर चलने में परेशानी होती है...रोड और ट्राफिक से डर लगता है...लगता है जैसे सब मेरी तरफ़ आ रहे हैं...पर आज का दिन अलग था... रास्ता पार करते समय मैं एक स्कूटर से टकरा गयी...घुटने में चोंट लगी...दर्द नहीं हुआ....अच्छा लगा...
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मैंने आज ब्लेड से अपनी ऊँगली काटी...खून देखकर मैं डर गयी...पर दर्द अच्छा लगा...दर्द सुकून देता है...माँ डर गयी थी....मुझे जैसे-तैसे कोई कहानी बनानी पड़ी....रात में पेन की नोक अपने हाथ में चुभा के सोने पर ही नींद आती है....नींद की गोली का असर लम्बा होता है...फिर कोलेज के लिये उठ नहीं पाती...
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कितने दिन से कोलेज नहीं गयी । उसके फार्म हाउस पर पड़े-पड़े भी बोरियत आने लगी है अब । लगता नहीं वो अब अपने पास भी आने देगा मुझे । उस दिन मुझे अपनी चमड़ी पर गरम मोम गिराते देख चौंक गया । कहने लगा “यू आर एब्नार्मल” । तब मैंने उससे कहा “नो, आई एम जस्ट डीफ्रेंट” ।
मेरी हालत भी इस गरम पिघले मोम जैसी है| चमड़ी पर गिरे तो लगता है कि लावा है कोई, और चमड़ी का स्पर्श पाते ही एक पल में उखड जाता है । कमरे की चार दिवारी के अन्दर तो लगता है कि मैं स्पेशल हूँ, पर जैसे ही बाहरी दुनियां में क़दम रखती हूँ, मुझे असामान्य सा लगने लगता है। साँसे उखड़ने लगती हैं । बदन पसीने से भर जाता है...एसा लगता है कि भाग कर फिर किसी छोटे अँधेरे कमरे में बंद हो जाऊं ।
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कल माँ पूछ रही थी क्या करती हो इतने रुपयों का? ऐसा क्यूँ पुछा उसने? मन किया की दूध का गर्म गिलास उनके मुँह पर उछाल दूं । भावनाओं पर कोई नियंत्रण ही नहीं रख पाती । पर माँ की गलती है, कभी भी कमरे में आ जाती है ।
और पापा....वो तो ज्यादा बात ही नहीं करते.........अपने हाल पर छोड़ देते हैं.........कभी डिस्टर्ब ही नहीं करते.......क्यों नहीं करते? अरे एसा क्या अलग दिखता है उन्हें मुझमें जो मुझे खुद में नहीं मिल पाता ?
अगला पन्ना..
डायरी....ओ डायरी....माय डियर फ्रेंड डायरी....आई लव यू.. बीकोज़ ओनली यू अंडरस्टेंडमी....ओनली यूयुयुयु....पता है क्यूँ? क्यूंकि तुम मुझसे कोई उम्मीद नहीं करती । गर दस दिन बाद भी तुम्हे खोलूं तो तुम कोई सवाल नहीं करती । पर कभी कभी तुमसे भी चिढ होती है मुझे...मन करता है फाड़-फ़ूड के फेंक दूं कचरे के डब्बे में ।
डायरी पढ़ते पढ़ते डेढ घंटा बीत चूका था...सुधीर का शरीर मानो धीरे धीरे सुन्न होता जा रहा था| दूसरी तरफ़ सुनिधि की शंका का बाँध टूटा| उसने दरवाज़ा खटखटाया| सुधीर ने बिना कोई जवाब दिए डायरी के आख़िरी पन्ने पलटे
ब्लडी डायरी...हाँ ठीक है कि तुम कभी सवाल नहीं करती...पर तुम्हारे पास किसी चीज़ का जवाब भी तो नहीं । बस तुम्हे अपने मन की बात बताती चली जाती हूँ...अपनी ख़ूबीयां और कमियां गिनाती चली जाती हूँ । तुम हर चीज़ खुद में दर्ज कर लेती हो पर कहती कुछ नहीं । सही मायनों में...तुम मेरे पापा की तरह हो । काश उन्हें भी तुम्हारी तरह हटा पाती अपनी लाइफ से ।
घुटन देने लगा है अब उनका अजीब सा रवैय्या । अरे कुछ नहीं करना मुझे....ना म्यूजिक, ना पढाई, ना कोई और बकवासफिर? फिर अपनाएंगे मुझे? कहेंगे अपनी बेटी? करेंगे प्यार? कहीं अपने फ़ायदे के लिए ही तो नहीं पैदा किया मुझे?
दरवाज़ा खटखटाने की तेज़ आवाज़ सुधीर के कानों में दबती चली जा रही थी....आँखों में दर्दनाक आंसू थे...पर चिखने की चेष्टा करने पर भी मुंह से कोई आवाज़ न निकली....सुधीर ने उसी अवस्था में आख़िरी पन्ना पलटा
ओ गॉड ! मुझे बहोत बेचैनी हो रही है । मुझे यहाँ से निकलना होगा । बहोत जल्द । इस आज़ादी के चंगुल से बाहर । एसी आज़ादी जिसमे सांस लेना भी मुश्किल है । कहीं दूर जाना है मुझे । पर कहाँ जाऊं? दूर भागकर आख़िर कहाँ जाउंगी? क्या करूँ? कैसे पीछा छुड़ाऊं इस बोझ भरी पहचान से । मुझे कोई पहचान बनानी ही नहीं । मुझे तो....मुझे तो पहचान मिटानी है......दर्द के चरम को करीब से देखना है....या उसी में डूब जाना है.....
या खुद को यूँ पा लेना है...कि खो जाना हैं ....