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ये कुकिंग क्या बला है

ये कुकिंग क्या बला है

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मुझे बचपन से ही खाने का बड़ा शौक है लेकिन बनाने का बिल्कुल भी नहीं। और जब से शादी तय हुई है, मेरी माँ चिमटा, बेलन, कढ़ाई, कूकर सब लेकर मेरे पीछे पड़ गईं है " खाना बनाना सीख ले।" यही रट लगाए रहती हैं, लेकिन मैं भी क्या करूँ मेरा तो किचन से छत्तीस का आंकड़ा है। किचन में घुसते ही मैं थक जाती हूं और मसाले देख कर इतना कन्फ्यूजन हो जाता है कि चक्कर आने लगते हैं और सब्जियों से तो मानो मेरी जंग सी छिड़ जाती हैं। 

लेकिन जहां हमारे समाज में लड़कियों को बचपन से ही घर का काम और खाना बनाना सिखाया जाता हैं। उन्हें ससुराल जाने के लिए तैयार किया जाता हैं। यह कह कह कर ससुराल जाएगी तो क्या करेगी ? ऐसे में अब तक माँ ने पेट भरने लायक तो बनाना सिखा ही दिया था। फिर भी कुकिंग मेरा शौक बिल्कुल भी नहीं था। 

 हमारे भारतीय समाज में किसी लड़की को खाना बनाना न आए तो उसकी शादी शुदा जिंदगी सफल होना मुश्किल हो जाती है और ससुराल में तो शादी के दूसरे ही दिन रीति रिवाज के नाम पर उसकी परीक्षा भी ली जाती हैं। जिसमें शुरुआत तो कुछ मीठा बनाने से की जाती है लेकिन ये सिर्फ ट्रेलर है और पिक्चर तो सारी जिंदगी चलती हैं। ये सब मेरी माँ अच्छे से जानती थी, तभी दिन रात मेरे पीछे पड़ी रहती थी। क्युंकि वो भी तो यही कर रही थी। सुबह से लेकर शाम तक रसोई में ही पूरी जिंदगी निकल गई उसकी और ससुराल के कठिन राहों से वह भी तो गुजर चुकी थी। अच्छे से जानती थी, कि पति ही नहीं घर के सभी सदस्य के दिल का रास्ता पेट से होकर ही जाता हैं। और वही रास्ता मुझे भूलभुलैया जैसा लगता था। शायद मुझे अपनी मां जैसी जिंदगी नहीं चाहिए थी। मैं बोलती भी उसे मुझे तुम्हारी तरह नहीं जीना हैं। इसलिए मुझे उन कामों में रुचि नहीं थी जिसमें मेरी माँ माहिर थी।

खैर शादी हो गई मेरी, वो भी ऐसे घर में जहां सब खाने के शौक़ीन। घर की औरतों पर ये खास जिम्मेदारी थी कि शौक का खास खयाल भी रखा जाए। मेरी सासू माँ और जेठानी दोनों ही पाककला में माहिर थीं। शादी के कुछ दिनों बाद मैं इनके साथ चली आयी, जहां इनकी नौकरी थी। वैसे मैंने इन्हें पहले से बता रखा था। " मुझे कुकिंग में ज्यादा रुचि नहीं " लेकिन ये हँस कर कह देते, "नहीं है रुचि तो हो जाएगी।" शादी के बाद औरतों को ये रुचि अपने आप हो जाती है। अब मेरी घर गृहस्थी शुरू हुई। खाना बनाने में तो पहले से ही मुझे ज्यादा रुचि थी नहीं, लेकिन घर सजाना सँवारना मुझे बहुत अच्छा लगता था। उसमें मेरा कोई जवाब नहीं था। अपने रचनात्मक तरीके से घर को नया रूप देती रहती। ये भी बहुत तारीफ करते। तुम्हारे आने से तो मेरे दो कमरों का ये मकान घर बन गया है।

कुछ समय तक तो ठीक रहा लेकिन अब इनकी शिकायते शुरू होने लगीं थीं। रोज रोज वहीं बना देती हो, कुछ नया क्यों नहीं बनाती, खाने में स्वाद नहीं आ रहा। इंटरनेट पर देख कर रेसीपी बनाने की कोशिश भी करूँ, तो उसमे भी ज्यादातर सफलता नहीं मिलती, क्योंकि खाना बनाना कोई एक दिन में तो नहीं सीख सकता। इस कला को सीखने के लिए समय लगता है। अभ्यास और तजुर्बे से ही इसे निखारा जाता हैं।

इस बार दीवाली की छुट्टियों में हम घर गए वहां भी सब जानते ही थे मेरे पाक कला के बारे में, तो सासू माँ मुझे ज्यादा जिम्मेदारी नहीं सौंपती थी। ज्यादातर रसोई का काम मेरी जेठानी ही देखती थीं। वो माहिर भी थीं इसमें, और अपने हुनर से सब का दिल भी जीत रखा था। कुछ भी बात हो उनसे ही राय ली जाती थी मुझसे पूछना तो दूर, मुझे बताना भी कोई जरूरी नहीं समझता। माँ सच कहती थी , जो बहू रसोई का काम संभालती है उसी का मान सम्मान सबसे ज्यादा होता है ससुराल में।

दीवाली के दूसरे दिन हम दोनों मेरे घर गए। मेरी माँ के हाथ का खाना खा कर बिना तारीफ किए ये रह नहीं पाए। लेकिन साथ ही साथ ये भी कह दिया, आपने अपनी बेटी को भी ऐसा खाना बनाना क्यों नहीं सिखाया ? इस बार मुझे सच में बहुत बुरा लगा। मुझे तो ये कुछ भी कहें, लेकिन मेरी माँ को इन्होंने ऐसा क्यों बोला ? माँ तो मेरी कमी जानती ही थी, इसलिए उसे ज्यादा बुरा नहीं लगा। मेरे मन में लेकिन बहुत गुस्सा था । माँ " क्या सिर्फ खाना बनाना ही सब कुछ होता है ? मेरा प्यार, मेरा समर्पण, वो इन्हें क्यों नहीं दिखता ? क्या औरत का जन्म सिर्फ खाना बनाने के लिए हुआ हैं।" नहीं बेटी ऐसा बिल्कुल भी नहीं है आज तो औरते बहुत आगे बढ़ चुकी हैं। किसी भी मामले में पुरुष से कम नहीं। 

अच्छा लेकिन एक बात बता औरत को अन्नपूर्णा क्यों कहा जाता है ? जबकि आजकल तो पुरुष भी खाना बनाते हैं और ज्यादातर शेफ़ पुरुष होते हैं तो उन्हें क्यों नहीं ? 

खाना बनानें को कला क्यों कहा जाता है मजदूरी क्यों नहीं ? जबकि खाना बनाना भी तो मेहनत का काम हैं।

बड़े बड़े होटलों का खाना छोड़ लोग घर के खाने के पीछे क्यों भागते हैं ? जबकि वहां तो बड़े बड़े शेफ खाना बनाते हैं ?

बच्चे को अपनी माँ के हाथ का खाना दुनिया में सबसे अधिक प्रिय क्यों हैं ? पिता के हाथ का क्यों नहीं, जबकि कई घरों में पुरुष भी खाना बनाते हैं। 

वो इसलिए क्युंकि एक औरत में ही प्यार , अपनापन ,सेवा, समर्पण का भाव अपेक्षाकृत पुरुष के अधिक होता है और इन्हीं सब भावनाओं के साथ जब खाना बना हो तो एक सादा सा खाना भी स्वादिष्ट बन जाता हैं जो पेट भरने के साथ साथ मन को भी तृप्त करता हैं। 

एक माँ जब अपने बच्चे को खाना खुद से बना कर खिलाती हैं जब बच्चों की फरमाइशें पूरी करती हैं तो उसे बहुत ख़ुशी मिलती हैं। वो बोझ नहीं होता उस पर।

इस बार सच में माँ की बातें मुझे समझ में आई और खाना बनाने को लेकर मेरा नजरिया बदल गया।



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