एक था मुगलसराय
एक था मुगलसराय
मुंह लटकाए, आंखों में आंसुओं का तालाब लिए वो गुस्से में कुछ बड़बड़ाये जा रहा था। वहीं उसके आसपास से लाखों लोग मुंह उठाये मशीन की तरह चले जा रहे थे। न तो किसी को उसकी आवाज़ सुनाई दे रही थी और न ही किसी को उसकी हालत पर तरस ही आ रहा था। तभी दूर से ही बेसुरे अंदाज़ में गाते हुए एक ट्रेन उसके पास आ कर रुकी।
“क्या हुआ मुग़लसराय भाई, ये मीना कुमारी काहे बने बैठे हो?”
अचानक खुद को नाम से पुकारे जाने पर वो सकपका गया और अपना नाम कहने वाले शख्स को इधर - उधर खोजने लगा।
“अरे भाई ! इधर - उधर क्या देख रहे हो, जानवरों जैसी हरकतें करने वाले हज़ारों इंसानो का बोझ ढोती तुम्हें 16 डब्बो की ट्रेन दिखाई नहीं पड़ती ?”
"क्या तुम मुझे सुन सकती हो ?"
- मुग़लसराय ने हैरानी भरे स्वर में ट्रेन की ओर देखते हुए पूछा।
"लो भला अब एक ही धर्म, बिरादरी और जाति के लोग एक दूसरे को नहीं समझेंगे तो कौन समझेगा बताओ भला !"
- ट्रेन ने मुंह बनाते हुए उसकी बात का जवाब दिया।
"अरे ! धर्म, जाति की बात मत करो, सारा रोना इसी बात का है।" - मुग़लसराय ने झल्लाहट में कहा।
"ऐ भाई ! चलो पहेलियां न बुझाओ ! मुद्दे पर आओ। ज़्यादा समय नहीं है, मेरा बॉस भी आने वाला होगा।"
"क्या, क्या, क्या...बॉस !"
"अरे हाँ रे, इंजन ! एक तो ये बॉस नाम के प्राणी को कोई नहीं समझ सकता। 10 मिनट का बोल कर गया था और अभी तक नहीं आया। इसके चक्कर में लोग मुझे गालियां देते हैं। अब जल्दी से बताओ मेरे पास समय नहीं है।"
"अच्छा एक बात बताओ, क्या तुम से किसी ने तुम्हारी पहचान छीनी है ? "
- मुग़लसराय ने लाचारी भरे स्वर में पूछा।
"नहीं। हाँ लेकिन कई बार मेरे रास्ते ज़रूर बदले गए है। एक मिनट, पहचान छीनने से तुम्हारा क्या मतलब है ? क्या मैं जो सोच रही हूँ, वही तो नहीं हुआ तुम्हारे साथ ? क्या तुम्हारा नाम बदला जा रहा है...?"
ट्रेन के इतना कहने पर मुग़लसराय ने आंसू पोछते हुए कहा -
“ये देखो ! सरकारी फरमान थमाया है बाबू ने। मुझसे बिना पूछे बिना बताए बस अचानक आदेश जारी कर दिया कि तुम्हारा नाम बदला जा रहा है। तुम जानती हो मैं मुग़लसराय हूँ ! मुग़लसराय...और मुझे इस नाम से तुम्हारे दादा, परदादा न जाने कितने लोग कई सालों से इसी नाम से पुकारते आए हैं ! बताओ ऐसा करता है कोई भला ? लेकिन एक बात जान लो, सिर्फ मुझसे ही मेरा नाम और मेरी पहचान नहीं छीनी जा रही। पहचान छिन रही है हर उस शख्स से जो यहां रहता है। हर उस पैसेंजर से जिसने यहां मेरी छत के नीचे न जाने कितने अच्छे - बुरे लम्हों को संजोया होगा और मिटाया जा रहा है हर उस कहानी को जिसे याद कर न जाने कितने ही दिल धड़कते होंगे।“
"अरे बस - बस ! मेरा समय हो गया। मुझे निकलना है।"
- ट्रेन ने किसी अधिकारी की तरह मामले से पल्ला झाड़ते हुए कहा।
"वैसे तुम्हारी समस्या का हल है मेरे पास।"
ट्रेन का इतना कहना था कि मुग़लसराय न जाने कितनी उम्मीदों को एक साथ बटोरता हुआ तपाक से बोल पड़ा -
"सच में ?"
"क्या तुम ट्वीटर पर हो ?" – ट्रेन ने पूछा।
"क्या...कौन सा टर्र.. अब भला ये किस बला का नाम है ?"
"मतलब तुम नहीं हो...अब तो तुम्हारी मदद प्रभु भी नहीं कर सकते हैं।"
"ये कौन से भगवान हैं ...और इनका मंदिर कहां है ?"
"वैसे हमारे और तुम्हारे लिए तो ये भगवान ही हैं , लेकिन ये मंदिर में नहीं मंत्रालय में मिलते हैं और ट्वीट के माध्यम से सबकी समस्या का हल करते हैं।"
"लेकिन ऐसे तो बहुत से लोग होंगे जो ट्वीटर पर नहीं हैं ..उन जैसे लोगों की समस्याओं का क्या ?"
- कुछ सोचते हुए मुग़लसराय ने सवाल किया।
मुग़लसराय के इतना कहने पर ट्रेन ज़ोर का ठहाका लगाते हुए वहां से चली गई।