यादें
यादें
मैंने आज ही मुम्बई के नए फ्लैट में सामान रखा। सामान सजाते सजाते मुझे एक छोटा सा बक्सा दिखाई दिया। मेरा मन निश्चित ही एक दोराय में उलझ से गया।
वो बक्सा मेरे साथ न जाने कितने सालों से था। आज भी याद है - जब पापा ने पन्द्रहवें जन्मदिन पर तोहफे में दिया था। सभी महँगे महँगे तोहफे भी उस सादे से लकड़ी के बक्से के आगे फीके पड़ गए। मैं कितनी खुश थी। वो बक्सा मेरे लिए किसी तिजोरी से कम नहीं था। पापा को अच्छी तरह से मालूम था कि मुझे अपना सामान भाई के साथ बाँटने में कितनी दिक्कत होती थी। उसे देखने के बाद बाकी तोहफों पर तो मेरी नज़र तक न गयी।
कुछ शोर हुआ तो मैं पन्द्रहवें जन्मदिन की याद से निकलकर वर्तमान में पहुँच गई। वो बक्सा मेरा साथी था - ज़िंदगी के सफर का। तो मैं उस दोराय की बात कर रही थी। मैंने उस बक्से को बहुत वक्त से नहीं टटोला। हाँ मगर मैं जहाँ भी रही, वो मेरे साथ था। एक तरफ मन था कि उस बक्से को खोलूँ - जिसमें मेरी ज़िंदगी के अहम पल सिमटे हैं। दूसरी तरफ मेरे में हिम्मत नहीं थी , उन पलों को आज़ाद करने की , जो उसमें कैद थे। मुझे नहीं मालूम मैं उन बीते सालों का सामना कैसे करूँगी। कुछ बुरी यादें भी उन खूबसूरत लम्हों में सिमटी थी। और, पंजाब से इतनी दूर मुम्बई आकर मैं थक भी चुकी थी। तो तय रहा , मैं ये बक्सा खोलूँगी, थोड़ा आराम फरमाने के बाद। मुझे करीब 2 घंटे लगे काम खत्म करने में। नहा धोकर आराम करने का सोचा ही था कि मेरी नज़र उसी बक्से पर जा पड़ी। फिर तो कौन सी थकान और कौन सा आराम।
मैंने झट से बक्सा उठाया और उस पर लगी धूल को पोछा। वो धूल उसके अनछुए रहने का प्रमाण थी। जैसे जैसे वो धूल साफ हो रही थी , मेरी धड़कनें तेज़ और आँखें धुंदली होती जा रही थी।
मैंने बक्सा खोला तो पाया कि कुछ कागज़ के टुकड़े पड़े थे। मैंने वो कागज़ उठाया और पढ़ने की कोशिश की मगर धुंधली आँखें चकमा दे गई। मेरी नज़र सहसा अखबार पर लिखे एक नाम की ओर चली गयी - पलक। कुछ वक्त के लिए मैं सब भूल गयी। बस मन में एक खुशी की लहर दौड़ गई। वो अखबार के टुकड़े इस बात का प्रमाण नहीं थे कि मेरे काम को सराहा गया, वो इस काम का सबूत थे कि मैंने वो ही काम किया, जो हमेशा से करना चाहती थी। जी हाँ, सही सोचा आपने - लेखिका / कवियत्री।
ज़िन्दगी की इस भाग दौड़ में मैं फुरसत के उन लम्हों को जीना ही भूल गयी थी। मैं आराम से फर्श पर बैठ गयी और एक एक करके सभी रचनाएँ पढ़ी , जो अखबार में प्रकाशित हुई थी। एक हल्की सी मुस्कान मेरे होंठों पर आ गई। दिल में एक सुकून से था। वो भागती सी ज़िन्दगी में मैंने सिर्फ उन लम्हों को संभाल कर रखा, मगर जिया कभी नहीं। उस वक़्त लगा कि अपने सभी खोये हुए पलों को वापिस हासिल कर रही थी। मेरी ज़िंदगी का कोई न कोई हिस्सा, उन किस्से कहानियों में मौजूद था। मैं बस उन्हें ही निहार रही थी।
बक्से में से फिर कुछ खत निकले । वो खत जो हमने एक दूसरे को लिखे। कितनी यादें समेटे थे वो खत। हाय! वो पहली मोहब्बत का इज़हार तो पहले झूठ का इकरार ....सब था वहाँ।
ये तब की बात है जब मैं अपनी ज़िंदगी के सफर में 17 पड़ाव पर थी। मैं अपनी 12 कक्षा की परीक्षा उत्तीर्ण कर चुकी थी। हमारे ही साथ के शहर में किसी कॉलेज में समर कैंप लगा था। अब ये किस्मत थी या कुछ और- नहीं पता। हम उनसे ( राजीव से ) वहीं मिले। वो 10 दिन की मुलाक़ात ने ज़िन्दगी भर की यादें दी। आखिरी दिन राजीव ने किसी दोस्त के हाथों खत भिजवाया था। वो सिलसिला फिर जारी रहा। मैंने भी पहले न नुकुर की , मगर ये दिल भी उन्हें चाहने लगा।
न जाने कैसे वो समय बीत गया। हर वक़्त एक खुशनुमा सा एहसास मुझे महसूस होता - उनके करीब होने का एहसास । मेरी सहेली के हाथों मेरे लिए तोहफा भेजना। तभी मेरी नज़र तोहफे में लिखी गयी कविता पर गयी। वो मेरे लिए लिखी गयी थी। हम दोनों के जीवन की पहली कविता। उन्होंने पहली बार लिखी थी कविता और मेरे लिए वो पहली कविता थी जो मेरे लिए लिखी गयी हो। मैं इतनी खुश थी कि बयान करना मुश्किल था।
खैर, तब हम दोनों ने एक दूसरे को आधिकारिक तौर पर नहीं बताया था। बस इशारों इशारों में बातें होती थी। धीरे धीरे वो मेरी आदत बन गए।मैंने घर पर उनका नाम कृतिका बताया था। कृतिका का खत आया....कृतिका से मिलने जाना है... आदि। वो दौर ही कुछ खुमारी वाला था। वो प्यार का खुमार हम दोनों पर चढ़ चुका था।
फिर एक दिन एक अनजान नम्बर से फ़ोन आता है...सामने से वो थे और उन्होंने अपने प्यार का इज़हार कर दिया....मैं ज़ोर ज़ोर से हँसने लगी थी....क्योंकि मुझे इसकी उम्मीद नहीं थी। जिस शख्स को मैं चाहती थी , वो भी मुझे चाहता है....इससे बढ़िया एहसास कोई न था।
मैं उन गुज़रे सालों की खुशबू महसूस कर रही थी । कि तभी मेरी आँखें भर आयी। सपनों की दुनिया से निकलकर हकीकत में आ गयी , जहाँ राजीव नहीं थे।
वो जाते जाते प्यार पर से मेरा भरोसा तोड़ चुके थे और मुझे भी। मैं कुछ इस कदर बिखर गई कि आज भी कुछ अंश बिखरे मिल जाएँगे। कुछ पल लगा कि उनके वो झूठे इकरारनामे फेंक दूँ। मगर न जाने क्यों रुक गई। उनके वो ज़ख्म ही तो थे , जिन्होंने मुझे बेहतर बनाया , मजबूत बनाया , हिम्मत दी खुद से उनसे सबसे लड़ने में।
उनके दूर जाने की वजह से ही तो मैं अपनी लेखन कला के करीब आ सकी। वो जाते जाते 2 काम अच्छे कर गए - मेरे अंदर के कवि से मुझे मिलाया, और इस बाहरी दुनिया से मेरी पहचान करवाई। शायद इसी लिए....उनके वो खत वहाँ मौजूद थे।
मैंने खुद को संभाला और बाकी का बक्सा देखने लगी।
वहाँ कुछ सम्मान चिन्ह थे ...जो मुझे लेखन के क्षेत्र में मिले। मेरे मन से उनके लिए फिर से शुक्रिया निकला... क्योंकि वो मेरी हर कविता में थे...मैंने उन्हें लिखा था, हमारे प्यार को लिखा था , उनके धोखे को लिखा था, शायद इसलिए वो कविताएँ बेहद खूबसूरत थी , क्योंकि वहाँ वो मौजूद थे। मुस्कान मेरे होंठों पर तैर गयी।
वहाँ एक एल्बम भी मौजूद था- जो मेरे बचपन की तस्वीरों से भरा पड़ा था। मैं उन तस्वीरों में कुछ इस कदर खो गयी के वक़्त का एहसास ही नही हुआ। 1 घंटा उसी एल्बम के साथ बीता और सूरज भी ढल चुका था। मैंने कुछ रोटी और दाल बनाई और खाकर वहीं बक्से के पास आकर बैठ गयी। मन तो नहीं था उठने का मगर रात के खाने के लिए उठना पड़ा।
उस एल्बम के नीचे वो प्रथम आने पर मिलने वाले सर्टिफिकेट थे। मैं हँस पड़ी। तब कितना सम्भाल कर रखती थी उनको। किसी को छूने तक नही देती थी। आज उनकी कोई कीमत नहीं थी ज़िन्दगी में- बस एक याद थी वो।
तभी बक्से में सबसे नीचे एक तस्वीर मिली। तस्वीर भी खराब सी हो गयी थी। मगर मैं पहचान सकूँ - इतनी साफ थी। वो माँ की तस्वीर थी।
मैंने उस तस्वीर को गले से लगाया और जी भर कर रोई। जो दर्द इतनी देर से अंदर समेट कर रखा था, सब बाहर आ गया । वो माँ की शादी से पहले की तस्वीर थी। मैंने झट से शीशा उठाया और देखने लगी....में बिल्कुल उनकी तरह दिखती थी। मैंने न जाने उनसे कितने राज़ छुपाये थे और आज उसका पछतावा हो रहा था। काश उन्हें उस वक़्त बता दिया होता जब वो मेरे पास थी। उनके जाने के बाद इतनी अकेली पड़ गयी थी। कोई नहीं था सम्भालने के लिए...न माँ खुद और न राजीव। काश आज माँ मेरे साथ होती। मेरी इतनी तरक्की देख कर बहुत खुश होती। वो भी लिखा करती थी , मगर शादी से पहले। वहीं से वो गुण मुझमें आया , बस पहचाना थोड़ी देर से।
तभी एहसास हुआ कि रात के 11 बज गए। ज़िन्दगी किसी फिल्म की तरह आँखों के सामने गुज़र रही थी...वो शायरी.... राजीव.... प्यार.... धोखा.... माँ... परिवार ....सब।
तभी दिमाग में ख्याल आया कि सब ही इस दौड़ भाग का शिकार हैं। कुछ लोग सिर्फ एक मुलाक़ात के मेहमान होते है और कुछ ज़िन्दगी भर आपका साथ देते हैं। मैं भी तो कितनों की ज़िन्दगी में वो मेहमान रही हूँगी। कुछ लोग अनजान बनकर टकराते हैं और ज़िन्दगी भर के लिए अपनी पहचान छोड़ जाते हैं। कोई चीज़ स्थायी नहीं रहती और न ही उम्रभर रहती है। हमें ही खुद को बदलते लोग, बदलते माहौल में खुद को ढालना पड़ता है।
तभी मुझे लगा कि मैं बिल्कुल अपनी माँ की तरह बातें कर रही हूँ। वो मेरे पास न होकर भी हमेशा मेरे पास रही।
तभी 12 बज गए। मेरे नज़र कैलेंडर पर गयी...जो 22 जनवरी दिखा रहा था। माँ का जन्मदिन और मेरे उसी एन.जी.ओ. का उद्घाटन । मेरे ज़िन्दगी के दो एहम दिन एक ही दिन। मैंने कागज़ कलम रखी क्योंकि सुबह भी तो उठना है ।