बस! अब और मुज़िरा नहीं !
बस! अब और मुज़िरा नहीं !
तो बात हैं, आज से ठीक १० साल पहले की, जब मैंने २५ के उम्र के देहली पे कदम रखा था और मेरे से जुड़े हर इंसान को मेरी शादी की फ़िक्र होने लगी थी। हम ऐसे समाज के हिस्सा है जहाँ लड़कियों के शादी के रिश्ते आते नहीं हैं, बल्कि उनको गुजारिश करके आने का न्योता दिया जाता हैं। मेरे माता-पिता भी रोज़ किसी न किसी को फोन करते रहते थे ताकि कोई अच्छा रिश्ता मिल जाये, कोई घर पे मिलने आ जाये। सच तो ये है की वो रिश्ते नहीं होते और ना ही कोई आपको मिलने आता है, वो तो सपरिवार सर्वेक्षण करने आते हैं, जैसे शनिवार का बाजार नहीं होता, जहाँ लोग चीज़ें देखने जाते हैं, ठीक वैसे ही हम लड़कियों को देखने आते हैं। ये देखने और दिखाने का सिलसिला कुछ हफ़्तों या महीनों का नहीं था, मेरे ज़िन्दगी में ये तो काफी लम्बा खींच गया था। इतने लम्बे अर्से में करीब-करीब १२ -१५ लोग आये होंगे, मुझे देखने, मेरा निरिक्षण करने। कुछ तो ऐसे किस्से भी हुए जो किरदारों के नाम सहित मेरे ज़हन में अभी भी छपे हैं।
बात ऐसे शुरू होती थी, कभी किसी का फोन आ
गया माँ को की एक अच्छा लड़का हैं, बस इतना सुनाई पड़ते
ही माँ अपने ख्वाब के पुलिंदे कसना शुरू कर देती थी। उनको खुश देख कर मुझे
भी अच्छा लगता था। उस
वक़्त मैं अपनी नज़रे ऊपर उठा कर यही दुआ करती थी की काश ये वाला ख्वाब उनका सच हो
जाए और उनकी चेहरे पे आयी ये ख़ुशी की चमक यूँ ही बरक़रार रहे।
फिर ऐसे ही बातें आगे बढ़ते-बढ़ते
वो दिन आता था जब मुझे पेश किया जाता था। खैर मैंने कभी इन सारी बातों को
दिल से नहीं लगाया और अपने परिवार के ख़ुशी के लिए जो मुनासिब समझा वो सब किया।
इन्हीं
सारे मिलने मिलाने के किस्से में एक किस्सा ऐसा हुआ था जब एक परिवार, लड़के के माँ-बाप, बहन-भाई सब आये थे
मुझे देखने। लड़के की माँ काफी पढ़ी लिखी थी, उसकी बहने भी
कॉर्पोरेट में काम करती थी। मुझे बड़ी ख़ुशी मिली थी ये सब
जानकार की उस परिवार में औरतों को काम करने की आज़ादी हैं। जब वो लोग आए तो
मैंने बड़े मन से सारे रीती रिवाज़ निभाए, समोसे के साथ चाय परोसना और माँ
के बाजु में नज़रें नीचे करके बैठ जाना।
फिर हुआ यूँ की लड़के की माँ ने
बोला, आपकी
लड़की तो अच्छी है, गुणी है, घर के काम काज भी आते
हैं तो हम इस रिश्ते को आगे बढ़ाते हैं।
उनकी बात पूरी हुई भी नहीं थी की
लड़के की बहन एक हलकी सी मुस्कराहट भरे लहज़े में बोल पड़ी- "हाँ तुम अच्छी तो दिखती
हो पर थोड़ा मोटी हो जाओगी ना तो और भी अच्छी लगोगी, खैर कोई बात नहीं
शादी तक वक़्त है अभी थोड़ा जिम
वगैरह
ज्वाइन कर लो और वेट गेन कर लो फिर तुम दोनों की जोड़ी अच्छी लगेगी।"
आप विश्वास नहीं करेंगे मेरा, पर सच में उस वक़्त
बिना एक लम्हा भी ज़ाया किये मैंने बोला- "अच्छा ! ऐसा है क्या ? फिर तो एक काम करो आप, अपने भाई की हाइट
थोड़ी और लम्बी कर लो फिर हम और भी अच्छे लगेंगे।
वो
क्या है ना लड़के की हाइट लड़की से थोड़ी ज्यादा हो तभी अच्छी जोड़ी लगती हैं, और
फिर आज कल तो मार्किट में कई ऐसी गोलियां मिलती है, मुझे नहीं लगता की
आपको ज्यादा मशक्कत करनी पड़ेगी इसके लिए।"
ये सुनकर उसकी बहन ने बोला-
" व्हाट डू यू मीन बाई देट ?"
फिर मैंने अपने स्वर में गंभीरता
लाते हुए कहा- "हाँ बिलकुल सही ! जो आपने सुना मैंने वही बोला, कयूँ
लडकियां तो टेलर मेड कठपुतली होती हैं ना,
थोड़ी मोटी हो तो पतली कर दो, थोड़ी पतली हो तो मोटी
कर दो और
फिर थोड़ी सावली हो तो फेयर एंड लवली लगा कर गोड़ी करने की हिदायत दे डालो।
अगर
लडकियां टेलर मेड होती है तो ठीक हैं, फिर तो लड़के भी ऐसे ही होने चाहिए।
"
बस फिर क्या था, आपने अंदाज़ा तो लगा
ही लिया होगा आगे का किस्सा।
लड़की
की जुबान बड़ी लम्बी है यह कह कर वो लोग घर से चले गए। उनके जाने के साथ ही
मुझे बड़ी लम्बी तमीज और तहज़ीब की लेक्चर मिली। जिन्होंने रिश्ता
लाया था, उन्होंने मेरे सामने मेरे परिवार वालों को एक सुझाव
दिया, सुझाव बिगड़े हुए रिश्ते को
सुधारने का। उन्होंने कहा -"देखिये, आपकी लड़की में थोड़ा
१९ -२० की दिक्कत तो है ही ना, मगर ये सब ढक जाएगा अगर आप थोड़ा लेन-देन के लिए तैयार हो जाए।"
ये
वाक्य पूरा किया ही था उन्होंने की मैंने उनको बाजुओं से पकड़ कर घर के बहार ले गयी
और बोला- "आगे से इस आँगन में कदम ना ही रखे आप तो अच्छा रहेगा।"
उस रोज़ मैंने वही किया था जो
मेरे अंदर से आवाज़ आयी थी। हम लडकियां है तो क्या हुआ ? हमें भी ना कहने का
उतना ही हक़ हैं। हम क्यूँ बिना सोचे समझे किसी
की भी झोली में पके हुए फल की तरह गिर जाए, हमें भी आज़ादी है झोली वाले का
चयन करने की। ये
सब कर तो दिया था मैंने, पर
कहीं ना कहीं थोड़ी तक़लीफ़ मुझे भी हुई थी। मुझे खुद से कभी कोई शिकायत नहीं
हुई, मुझे
तकलीफ होती थी अपने माँ-बाप की हालत देख कर। मुझसे उनका दुःख देखा
नहीं जाता था।
इस किस्से के बाद कई रोज़ तक मेरे
परिवार वाले मुझसे नाराज़ रहे और घर में कुछ दिनों तक मातम का माहौल सा बन गया था।
पर वही कुछ दिन बीते फिर वही
सीलसिला चालू हो गया। एक वक़्त तो ऐसा आया था, जब मैंने मेरी माँ को
कहा - "बस अब और मुज़िरा नहीं। मुज़िरा हीं तो हुआ ना ये, आप एक अच्छा कपडा
पहनों, खुद
को अच्छे से तैयार करो और फिर चाय और स्नैक्स के साथ भड़ी महफ़िल में जाकर बैठ जाओ
ताकि लोग आपका निरिक्षण कर पाए। बस ठुमका ही तो नहीं लगाया बाकि
सब तो वही किया ना।" मेरी माँ सब समझती थी पर वो भी क्या करती हमारा समाज ही
ऐसा हैं।
इसी बीच काम के सिलसिले में मैं दूसरे शहर आ गयी। यहाँ जो घर लिया था वो दफ्तर से काफी दूर था, करीबन एक से दो घंटे लगते थे मुझे कैब से दफ्तर पहुँचने में, पर अच्छी बात ये थी की दफ्तर की ही कैब सर्विस थी। शुरुवात के कुछ दिनों में तो मैं अकेले आया- जाया करती थी पर कुछ दिनों बाद एक नए एम्प्लोयी ने ज्वाइन किया और चुकी उसका घर मेरे इलाके में ही था तो हम साथ में कैब में आते-जाते थे। अब रोज़ रोज़ दो घंटे मैं शांत तो बैठ नहीं सकती, तो धीरे धीरे हमारी बातें शुरू हो गयी। कैब में बैठे बैठे हम देश विदेश की दुनिया भर की खबरों पे चर्चा करते थे। ऐसे कुछ महीने बीते होंगे कि, जब हम दफ्तर से कैब में लौट रहे थे तब उस शख्स ने काफी गंभीर लहज़े में मुझसे पूछा- "क्या तुम मुझसे शादी करोगी ?"
मैंने ड्राइवर की तरफ देखा और
कहा- "आज इनकी कोई पार्टी थी क्या ? लगता हैं कुछ ज्यादा ही चढ़ गयी
है ?"
इसपे उसने बोला- "नहीं मैं
पूरे होश और हवास में ये बोल रहा हूँ , मैं तुमसे शादी करना चाहता हूँ।"
बस फिर क्या था, मैं भी पुरे जोश के साथ बोली-
"आपकी हिम्मत कैसे हुई ये बोलने की ? अपनी शकल देखी हैं ? रोज़ नहा कर तो आते
नहीं और चले है मुझसे शादी करने। और सबसे बड़ी बात, आपकी परफ्यूम की खुसबू
इतनी घटिया होती है की मैं हर रोज़ अपने नाक पे रूमाल डाल कर बैठती हूँ।
आपसे
कौन शादी करेगा, जिन्न
लगते हैं आप।"
फिर उसने बड़े ही शांत स्वर में
कहा- "तो फिर जिन्नों की शादियां परियों से होती हैं ना।"
मैंने कहा- "ठीक हैं फिर
जाए और ढूंढे परी को। मैंने बड़े देखे हैं ऐसे सड़क चलते शादी करने गुजारिश करने वाले और
बड़ी अच्छे से वाकिफ हूँ ऐसे लोगों के फिदरत से।"
ये कह कर मैं कैब से बाहर निकल
गयी।
अभी एक कदम आगे बढ़ाया ही था की
वो मेरे सामने आकर खड़े हो गए और बोले- "मैं सच बोल रहा हूँ।"
मैंने कहा- "देखे अगर आपको
सच में शादी करनी है तो बेहतर ये होगा की बजाय मेरे, आप मेरे माँ-बाप से
मेरा रिश्ता मांगे।"
फिर मैंने एक टैक्सी ली और घर आ
गयी। मुझे तो इस पूरे इत्तेफ़ाक़ पे
हसीं आ रही थी। ऐसे
कई देखे हैं मैंने आशिक़ जिनको महीनों में प्यार हो जाता है और फिर हवा में ही शादी
करने का वादा करने लगते हैं। यही आशिक़ जब अपने घर जाते हैं तो मुंह में बच्चों
वाले दूध के बोतल डाल कर इत्तेलाक करते हैं कि नहीं मेरी माँ तो राज़ी ही नहीं हैं
इस रिश्ते के लिए।
इसके बाद , कुछ दिनों तक हम साथ
में कैब से दफ्तर तो जाते थे पर एक अजीब से ख़ामोशी रहती थी हमारे बीच।
अचानक से एक दिन माँ का फोन आया
और मुझे तुरंत घर आने को बोला। घर जाकर मालूम लगा की सच में
उसके परिवार वाले आने वाले हैं और वो भी कल ही। मैं तो सोच में पड़
गयी की ये इंसान सच में इतना सीरियस कैसे हैं ?
फिर कल हुआ और उसके घर वाले आये।
ऐसे
ही हलकी-फुल्की बातों के बाद मेरी माँ ने कहा की मैं लड़की को बुला देती हूँ, आप देख लें और मिल कर
बातें कर लें।
(मैं बाजु के कमरे में बैठ कर बस
खुद के बुलावे का इंतज़ार ही कर रही थी)
इसके बाद जो मैंने सुना, उस से तो मुझे मेरे
कानों पे भरोसा ही नहीं रहा।
उसकी माँ ने कहा - "नहीं हम
लड़की देखने नहीं आये हैं। हम तो रिश्ता लेकर आये हैं।
मेरे
बेटे को आपकी लड़की पसंद है, बस
हमें और कुछ नहीं देखना। वैसे भी लड़कियां खुदा की नेमत होती हैं, जिस दिशा में जाती है उस दिशा
में सुख और शांति का बहाव ले जाती है। किसी को अपना बनाना हो तो उसकी
जांच परख नहीं करनी चाहिए बस उसे अपना लेना चाहिए, मैं भी एक बेटी की
माँ हूँ , मैं
समझती हूँ। आप
लोग सोच ले और फिर हमें बता देना जैसा भी आपका निर्णय हो।"
यह कहकर वो चली गई परिवार के साथ।
वो चली तो गयी थी पर उनके शब्दों ने मेरे अंदर एक अजीब सा सवाल जवाब का सिलसिला छेड़ दिया था। ऐसा कैसे हो सकता है की एक माँ जो अपने बेटे के लिए लड़की देखने आये और वो ये कहे की नहीं हम लड़की देखने नहीं आये हैं बल्कि हम तो अपने बेटे के पसंद के लिए रिश्ता लेकर आये हैं। कहाँ हैं वो पढ़ी लिखे माँएँ जिनको दिखावे के लिए बहू चाहिए होता है। उनसे कही ज्यादा अच्छी तो ये औरत हैं जिसे कदर हैं अपने बेटे के पसंद की।
कहाँ से आयी ये औरत जिसे इस बात का ख्याल हैं की दूसरों के घर की माँ - बेटियों के इज़्ज़त पे कीचड़ नहीं उछालना।
हम
हमेशा सोचते हैं की पढाई-लिखाई हमें ज़िन्दगी जीने के दांव पेंच
समझा देती हैं पर नहीं मैं गलत थी। आज उसकी माँ को देखकर लगा की
नहीं इस से बेहतर तो ना पढ़ना ही है, कम से कम हम उनकी तरह खुदा की
नेमत को समझ तो पाएंगे ना। कम से कम उनको समाज के द्वारा
बनाये गए पैमाने में ढालने की कोशिश तो नहीं करेंगे ना, ये तो समझ पाएंगे की
ऊपर वाले के द्वारा बनायीं हुई हर चीज़ उसकी तरह ही खूबसूरत और आँखों को सुकून देने
वाली होती है।
आज जब इस पूरे किस्से को हुए ५
साल से ऊपर हो गए तो कभी-कभी मैं यही सोचती हूँ क़ी कितना भी पैसा खर्च करके ऊँची
से ऊँची तालीम क्यूँ ना दे दो, पर इनसे किसी के इंसानियत का अनुमान नहीं लगा
सकते। एक
बात जो मैंने ज़िन्दगी से सीखी है वो बताना चाहूँगी, इसको एक पैगाम की तरह
लेना और ज़िन्दगी में आज़मा कर देखना जरूर|
ज़िन्दगी, बगैर अच्छी तालीम के
जी जा सकती हैं, ज़िन्दगी, अमीरी
या गरीबी दोनों में जी जा सकती हैं,
सौ रोज़ एक ही कपडे पहनने से हमारी साँसे नहीं घूटती, दो वक़्त के पुलाव की जगह, दाल रोटी खा ले तो जान हलक में नहीं आती,
पर बगैर मोहब्बत और इज़्ज़त के ज़िन्दगी नहीं जी जा सकती।
हालात कितने भी बुरे क्यों ना हो
जाएँ, पर कभी ऐसे रिश्ते में मत बंध
जाना जहाँ तुम्हें ये दो चीज़े ना मिले, बेनाम
शर्तों पे बना रिश्ता पानी में बने बुलबुले से भी ज्यादा खोखला होता हैं, पल
भर में फट के पानी में समा जायेगा और तुम हाथ पे हाथ धरे रह जाओगे। श्रद्धा और सबुरी रखो, आज
मुश्किलात पैदा हुए हैं तो कल उनका हल भी मिलेगा।