नीरस भोर
नीरस भोर
भोर के सितांचल पर
झीने बादल छा गए
अश्रु जल का क्षार पी कर
स्वप्न कुछ ओंधे पड़े
तिमीर विष को छांटकर ना
स्नेह का रस उभरे
ताप उर संताप जर्जर
अरविन्द तट पर विषमता के
गोल से खंजन पड़े
भर कटोरी प्रीत की
पिबत गुज़री रात भर
नैंन सुख कटे नींदागोश में
पाजेब लय सी भोर दीसे
दीप सा शृंगार मेरा
सुधि तुम्हारी हर चला
एक व्योम सा मुझे छूके गुज़रा
निशीथ पुरी मुझे लिपटे
सुबह स्वप्न बाग सूना पड़ा
थे सुगंधित रात के कण
दिन को सब बेसुध पड़े।