झूठ फरेब
झूठ फरेब
झूठ फरेब फल फूल रहा है
इन्सानो को निगल रहा है ।
झूठ फरेब की चकाचौंध मेें
किसी को कुछ नही दिख रहा है ।
झूठ फरेब मक्कारी का
कदम कदम पर डेरा है
न कोई तेरा न मेरा है ।
बाजारो मे रोज रोज
व्यापार यों ही चल रहा है ।
छोटा बड़ा हर पेड़ पौधा
यहाँ पर पनप रहा है ।
झूठ फरेब मक्कारी के
दलाल गली चौराहो मे
खोजते ही मिल जायेगे ।
इन्सानो के बीच मे
भेड़िये यहाँ मिल जायेगे ।
उनके पास मे दया
धर्म न मानवता है
लौंच लौचकर खा जायेगे ।
मानवता इन्सानियत को
घर की खूटी पर टांग देते है ।
झूठ फरेब के धन्धे मे
अपनी रोजी रोटी चलाते है ।
उसी मे पनपते पलते है ।
सभी को उल्लू बनाते है ।
अपना उल्लू सीधा करनेे
भाई को भाई को लड़ाते है ।
उनके झूठ और सच को
सभी समझ नही पाते है ।
झूठे फरेब के इन्जेक्शन
भी बाजारो मे मिल जाते है ।
फल सव्जियो में लगते है ।
शाम को लौकी मे लगा दो
सुबह एक हाथ की हो जाती है ।
झूठ परेब का ये बाजार
ऐसे ही फल फूल रहे है ।
इन्सानो को तो छोड़ो पेड़
पौधो को भी निगल रहे है ।