हकीकत-ए-जिंदगी के मसले
हकीकत-ए-जिंदगी के मसले
आज फिर यादों की किताब खुली,
कही अनकही न जाने कितनी बातें सुनी।
वो जो सदियों से चुप थी ,
उस खमोशी ने हजार बेदर्द रातें धुली।
पहर कुछ थमा,घड़ी फिर टिक - टिक हुई,
उस सन्नाटें में मैने जुगनू की आवाज सुनी।
एक शख्स धुँधला सा कुछ कह रहा था,
क्या ये हकीक़त थी, या मेरा मन फिर कोई ख़्वाब बुन रहा था।
मैं सहमी, बस चुप चाप सब सुन रही थी,
फिर अहसास हुआ ये ख़्वाब नहीं,हकीक़त जरा मचल रही थी।
गौर से देखा जब वो धुंधला चेहरा,
तो समझ आया मेरी कलम कुछ चीख रही थी।
पूछना चाहती थी वो,
आखिर कब तक ये सियासती मसले ,
आवाम को जिन्दा दफनायेगे ।
वो आराम फरमाएंगे,
और गोलियाँ हमारे जवान खाएँगे।
जो कुछ अंदर था, वो सब पन्नों पर पीरोना चाहती थी।
अनसुना करते हैं जो,
हर एक सवाल उनके कानों में चुभोना चाहती थी।
कह रही थी की , वो किसान जो सबका पेट भरता हैं,
क्यों वो हर साल खुदखुशी करता हैं।
पुछ रही थी की आखिर कब तक ये सिलसिला चलेगा,
आरक्षण के मसलों में कब तक भाईचारा दम तोड़ेगा।
कब तक जाति, धर्म के नाम पर वोट बटोरे जायेंगे ।
आखिर कब तक हम यूँ खामोश रह ,
सब सहते जायेंगे।
कब तक हर रोज किसी लड़की की आबरू नोची जाएगी,
बेखोफ हो वो, कब रात को घर देर से आएगी।
इश्क, मोहबब्त , दर्द , नजाकत के नगमें तो सब गाते हैं,
पर क्या किसी को हकीकत-ए-जिंदगी के मसले भी नजर आते हैं??