स्टॉकहोम सिंड्रोम
स्टॉकहोम सिंड्रोम
बहुत सारी जिंदगियां है
जो एक तरफ से बनती दिखती है
मगर दूजी तरफ से ढह रहीं होती है
मेरी नजर में ये मसला
उनके बनने ढहने का नहीं है
ये महज उन जगहों
की तासीर है जो उनके
लिए माकूल नहीं है।
ये जिंदगियां किसी
मायूस राग सी नहीं है
इनमे बहुतेरे रंग छितरे हुए है
मगर ये बहसती हैं खुद से खवामखां ही
गुजरे चंगेजी अंदाज में
जबकि आना चाहिए पेश इन्हें
किसी नाफ़ासती
लखनवी सा।
ये कसमसाती
कुढ़ती और दबी आवाजों में
चीखती हुई मुर्दा जिस्म सी जिंदगियां
अपनी रूहों में फांस लगा कर
चलती है पीटती हुई खुद को
जैसे हो पाक मातम
मोहर्रम का ।
मुझे कोफ्त होती है
इनकी सिसकियां सुन कर
तरस नहीं आता इनकी
कुचली हुई इच्छाएं सुन कर
मुंह फेर लेने का जी करता है
जब ये गाती है गीत
अपने बलिदानों का देते हुए
गाली किस्मत के नाम पर
दिल ही दिल मे।
ये जिंदगियां
अपने आप से कभी
इश्क कर ही नहीं सकती
ये इश्क़ के नाम पर जीती है
जलालत, वहशियत
और चाहती है छोटा सा निवाला
खैरात के सम्मान का
आत्म सम्मान के
नाम पर।
ये सब
हालातों संग
स्टॉकहोम सिंड्रोम
में हैं।