यदि शेर के अंतर्मन में उठे
यदि शेर के अंतर्मन में उठे
इसी तरह का जीवन उसका, शास्वत यही आचार,
क्षुधा तुष्टि हेतु उसको करना पड़ता है शिकार।
जीव हत्या करने को सिंह है बेबस और असहाय ,
नहीं समक्ष कोई अवसर उसके, कोई नहीं उपाय।
कभी खग को कभी गज़ को मारे, कभी मृग के भी पीछे भागे,
तोड़ के कितने जीवन धागे, निज जीवन रक्षण को साधे।
दाँत गड़ाए मृग के तन में ,उदर फाड़ दे गज का क्षण में ,
नहीं अपेक्षित करुणा रण में, कितनी भी पीड़ा हो मन में।
कहते ज्ञानी जीव हत्या ले जाती नरक के द्वार ,
पर पीड़ा सम अधम नहीं ये कहता है संसार ।
और जीव जो करुणा करता, दर्शाता है प्यार .
प्रभु खोल देते है उसके लिए स्वर्ग के द्वार।
अगर शेर की जीव हिंसा है,तेरी नजर में पाप?
क्या दोष है सिंह का इसमें, फिर क्यों ये अभिशाप?
क्या तेरी रचना में स्वर्ग को, नहीं शेर अधिकारी,
क्यों श्रापित सा जीवन इसका, क्या तेरी लाचारी?
सब कहते तू मौका देता सबको एक संसार में,
फिर क्यों प्रश्नबिंदु ये चिन्हित है तेरे व्यवहार में।
यदि शेर के अंतर्मन में उठे स्वर्ग की चाह,
तुम्ही बताओ हे ईश्वर वो चले कौन सी राह।