चार दिनों का फेरा
चार दिनों का फेरा
चार दिन की जिंदगी में तू करले खूब मौज,
नाम कमाना बड़ा ना दिखाना कभी धौंस।
पहला दिन बचपन का जो बच्चे जैसे रोता है
माँ की आंचल में लिपटे शुकुन से बस सोता है।
यादगार लम्हें जो सभी के साये में गुजरती है,
बीत जाता है बचपन उम्र कहा ठहरती है।
दूजा दिन किशोरावस्था सूझ बूझ पनपता है,
अच्छी हो परवरिश तो शुरुआत यहीं से होता है।
यही संगत का अच्छा और बुरा असर दिखाएं,
नाजुकता है दौर में पर मन चंचल होता जाए।
युवावस्था में जिम्मेदारी काफी बढ़ती हैं
काम धाम और शादी की बातें चलती हैं।
उम्र है एक खुद के संसार को बनाने का,
तय करते हैं फिर कुछ नई पहचान पाने का।
घट जाए ये जवानी जब वृद्धावस्था आती है,
चार दिन की कहानी आखिर खत्म हो जाती है।
बचपन, किशोरावस्था, युवावस्था, वृद्धावस्था,
ये है सारी सिर्फ चार दिनों की अवस्था।
ना पड़ झगड़े में कि क्या तेरा क्या मेरा है,
याद रखना जिंदगानी चार दिनों का ही फेरा है।