रंग हरि का हरा
रंग हरि का हरा
पत्तों पर प्रेम उभरा,
हरी समस्त वसुंधरा ।
शीशा सी ओस पड़ीं,
श्रृंगार कर पाती पर लड़ी।
पिरो मोती नक्काशी आसमानी,
आह...! सौंदर्य सी रानी।
गुनगुनी धूप टपकती ,
अनायास कोंपल खिलती।
मधुर -मधुर भ्रमर गुंजन,
सुमन की चाहत मकरंद।
प्रेयसी शशि रजनी को त्याग,
प्रेम प्रभात संग जाग।
उठा चंचल चितवन ,
तितली -प्रेम चंचल रंगीन।
हृदय से लगाकर अमृत पान,
प्रसून पर बैठे इठलाए तन ।
पंछियों कलरव प्रेम ठोस पांख,
नीड़ पर अडिग साख ।
रश्मि का उद्धरण,
निद्रा राज विराजमान ।
प्रेम कर रहा सियासत,
बदल रहा दिवाकर आहट।
बैरी पिया करवट ले रहा,
ऋतु राग बदल रहा।
आत्मा -परमात्मा मिलन,
ह्दय प्रेम का स्थल मनन।
प्रहर रात्रि का अंतिम न्योता,
दीए माटी का पुनः समझौता।
देहरी पर आस का जलता ,
भोर की दीवाली का दीया टिमटिमाता।
प्रभु राम की अयोध्या नगरी,
दिशाएं गूंजन करे हरी- हरी ..!
