चाहत
चाहत
ख़ुद को ख़ुद ही आज मैं गढ़ने चली
सौ नगीने ख़ुद पे ही मढ़ने चली,
पत्थरों की बेड़ियाँ रोकेंगी क्या-
आसमाँ पर अब तो मैं उड़ने चली !
ख़ुद को ख़ुद ही आज मैं गढ़ने चली
सौ नगीने ख़ुद पे ही मढ़ने चली,
पत्थरों की बेड़ियाँ रोकेंगी क्या-
आसमाँ पर अब तो मैं उड़ने चली !