माँ
माँ
दीप जलाकर
बंद कोठरी के अंदर बैठी
रचना तुम करती हो
देख न ले कोई मुझको ।
रोज दुआ पढ़ती हो
बंद गुफा की सख्त दीवारों में
मुठ्ठी भर मिट्टी से अक्स
मेरा गढ़ती हो।
अपनी रचना से बाते करती हो
कैसा स्वरुप होगा मन में तय करती हो
नीद से बोझिल हो पलके तेरी तो
गुफा के द्वारा खड़े चक्रधारी हर पल पहरा देते ।
बंद कोठरी में एक दिन
पीड़ा का सैलाब उमड़ता।
मेरी मूरत देख तुम
पीड़ा के सैलाब से
बाहर निकल खड़ी होती।
इतनी वेदना सह कर
पीड़ाओं के ज्वार से लड़
कड़े इम्तिहान के बाद
मुस्कुराती मालन सी लगती हो।
आह! कितना सुन्दर पुष्प
झरा है तुम्हारी असीम गोद में।
तुमने अपने स्तनों से
पृथम अमृत पान कराया
मेरा जीवन मुस्कराया ।